Saturday, 25 June 2016

सारंगढ़ से सतनाम की उत्पत्ति

सारंगढ़ से सतनाम की उत्पत्ति :--

         सारंगढ़ का सदियों से गौरवशाली इतिहास रहा है. आज हम छत्तीसगढ़ में सतनाम का अलख जगा रहे है. बताया जाता है कि औरंगजेब की कहर से सतनाम को बचाने के लिए नारनौल से पलायन कर सुरक्षित स्थान की तलास में राजा बीरभान एवं उदेभान का आगमन सारंगढ़ की पावन भूमि पर हुवा. तब सारंगढ़ एक टापू के सामान था बांस का सघन जंगल और महानदी से घिरा हुआ सुरक्षित भूभाग जहा पर सतनामी राजा ने अपना गढ़ स्थापित किया जिसे आज सारंगढ़ के रूप में जाना जाता है. लेकिन दुर्भाग्य है सतनामियो का जिन्हें अपना इतिहास की ठीक ठीक जानकारी नहीं है. गौर करने वाली बात है कि परम पूज्य गुरु घासीदास जी को सारंगढ़ में सत्य का ज्ञान प्राप्त हुआ था, कही ऐसा तो नहीं की सारंगढ़ के राजपुरोहित से बाबा जी का मिलन हुआ हो और उन्होंने बाबा जी को सतनामी राजा के सम्बन्ध में जानकारी दी हो जिसके बाद गुरु बाबा जी समाज को संगठित करने के लिए गहन तपस्या में चले गए हों, अगर ऐसा है तो यह रहस्य हमसे क्यों छिपाया गया. आज से करीब 352 वर्ष पूर्व का इतिहास सतनामी गौरव को दर्शाता है इसके बाद का दुसित इतिहास हमारे सामने भरे पड़े है जिसमे सतनामियो को दलित, शोषित, हरिजन और न जाने क्या क्या लिखा गया है. सतनामी जाती के लोग शूरवीर क्षत्री थे जिन्होंने नारनौल में औरंगजेब की सेना को कई बार परास्त किया था इनके पराक्रम की खबर लगते ही स्वयं औरंगजेब को मैदान में उतरना पड़ा था. इस लड़ाई में सतनाम समाप्त हो जाता लेकिन राजा उदेभान व बीरभान ने सतनाम की रक्षा के लिए नारनौल से पलायन कर सुरक्षित स्थान पर चले गए. सारंगढ़ क्षेत्र में सर्व प्रथम राजा उदेभान सिंह व बीरभान सिंह रहे इन्होने यहाँ कब तक शासन किया इसकी ठीक ठीक जानकारी नहीं है हालाँकि इनके बाद जो राजा  यहाँ राज किये उनका पूरा जानकारी मौजूद है.
      
सतनामी विद्रोह  के सम्बन्ध में कॅंवल भारती ने अपने दलित विमर्स ब्लॉग में लिखा है कि भारत के इतिहासकारों ने सतनामियों को बहुत घृणा से देखा है। इसका कारण इसके सिवा और क्या हो सकता है कि सतनामी दलित वर्ग से थे और इतिहासकार उनके प्रति सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त रहे। ये इतिहासकार डा0 आंबेडकर के प्रति भी इसी मानसिकता से ग्रस्त रहे हैं। इसलिये उन्होंने न आंबेडकर को इतिहास में उचित स्थान देना चाहा और न सतनामियों को। अपवाद-स्वरूप एकाध इतिहासकार ने स्थान दिया भी है, तो बहुत ही घृणित और विकृत रूप में उनका जिक्र किया है।

‘1672 ई० की सर्वाधिक उल्लेखनीय घटना सतनामी नामक हिन्दू संन्यासियों के उदय की है, जिन्हें मुण्डी भी कहा जाता था। नारनौल और मेवात के परगने में इनकी संख्या लगभग चार या पाॅंच हजार थी और जो परिवार के साथ रहते थे। ये लोग साधुओं के वेश में रहते थे। फिर भी कृषि और छोटे पैमाने पर व्यापार करते थे। वे अपने आपको सतनामी कहते थे और अनैतिक तथा गैरकानूनी ढंग से धन कमाने के विरोधी थे। यदि कोई उन पर अत्याचार करता था, तो वह उसका सशस्त्र विरोध करते थे।’ (पृष्ठ 294) 

 यह विवरण यदुनाथ सरकार के विवरण से मेल नहीं खाता। ख़फी ख़ान की दृष्टि में सतनामी ऐसे साधु थे, जो मेहनत करके खाते थे और दमन-अत्याचार का विरोध करते थे, जरूरत पड़ने पर वे हथियार भी चलाते थे। उसके इतिहास में सतनामियों के एक बड़े विद्रोह का भी पता चलता है, जो उन्होंने 1672 में ही औरंगजेब के खिलाफ किया था। अगर वह विद्रोह न हुआ होता, तो ख़फी ख़ान भी शायद ही अपने इतिहास में सतनामियों का जिक्र करता। इस विद्रोह के बारे में वह लिखता है कि नारनौल में शिकदार (राजस्व अधिकारी) के एक प्यादे (पैदल सैनिक) ने एक सतनामी किसान का लाठी से सिर फोड़ दिया। इसे सतनामियों ने अत्याचार के रूप में लिया और उस सैनिक को मार डाला। शिकदार ने सतनामियों को गिरफ्तार करने के लिये एक टुकड़ी भेजी, पर वह परास्त हो गयी। सतनामियों ने इसे अपने धर्म के विरुद्ध आक्रमण समझा और उन्होंने बादशाह के विरुद्ध विद्रोह की घोषणा कर दी। उन्होंने नारनौल के फौजदार को मार डाला और अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करके वहाॅं के लोगों से राजस्व बसूलने लगे। दिन-पर-दिन हिंसा बढ़ती गयी। इसी बीच आसपास के जमींदारों और राजपूत सरदारों ने अवसर का लाभ उठाकर राजस्व पर अपना कब्जा कर लिया। जब औरंगजेब को इस बग़ावत की खबर मिली, तो उसने राजा बिशेन सिंह, हामिद खाॅं और कुछ मुग़ल सरदारों के प्रयास से कई हजार विद्रोही सतनामियों को मरवा दिया, जो बचे वे भाग गये। इस प्रकार यह विद्रोह कुचल दिया गया। (वही) यह  विद्रोह इतना विशाल था कि इलियट और डावसन ने उसकी तुलना महाभारत से की है। हरियाणा की धरती पर यह सचमुच ही दूसरा महाभारत था। सतनामियों के विद्रोह को कुचलने में हिन्दू राजाओं और मुगल सरदारों ने बादशाह का साथ इसलिये दिया, क्योंकि सतनामी दलित जातियों से थे और उनका उभरना सिर्फ मुस्लिम सत्ता के लिये ही नहीं, हिन्दू सत्ता के लिये भी खतरे की संकेत था। अगर सतनामी-विद्रोह कामयाब हो जाता, तो हरियाणा में सतनामियों की सत्ता होती और आज दलितों पर अत्याचार न हो रहे होते।  
 सवाल है कि ये सतनामी कौन थे? उत्तर में यही कहा जा सकता है कि सभी सतनामी दलित जातियों से थे। यद्यपि, आरम्भ में इस पन्थ को चमार जाति के लोगों ने स्थापित किया था, जो सन्त गुरु रविदास के अनुयायी थे, पर बाद में उसमें अन्य दलित जातियों के लोग भी शामिल हो गये थे। इलियट और डावसन लिखते हैं कि 1672 के सतनामी विद्रोह की शुरुआत गुरु रविदास की ‘बेगमपूर’ की परिकल्पना से होती है, जिसमें कहा गया है कि ‘मेरे शहर का नाम बेगमपुर है, जिसमें दुख-दर्द नहीं है, कोई टैक्स का भय नहीं है, न पाप होता है, न सूखा पड़ता है और न भूख से कोई मरता है। गुरु रविदास के उस पद की आरम्भ की दो पंक्तियाॅं ये हंै-
 अब हम खूब वतन घर पाया, ऊॅंचा खेर सदा मन भाया।
 बेगमपूर सहर का नाॅंव, दुख-अन्दोह नहीं तेहि ठाॅंव।
 इलियट लिखते हैं कि पन्द्रहवीं सदी में सामाजिक असमानता, भय, शोषण और अत्याचार से मुक्त शहर की परिकल्पना का जो आन्दोलन गुरु रविदास ने चलाया था, वह उनकी मृत्यु के बाद भी खत्म नहीं हुआ था, वरन् उस परम्परा को उनके शिष्य ऊधोदास ने जीवित रखा था। वहाॅं से यह परम्परा बीरभान (1543-1658) तक पहुॅंची, जिसने ‘सतनामी पन्थ’ की नींव डाली। इस पन्थ के अनुयायियों को साधु या साध कहा जाता था। वे एक निराकार और निर्गुण ईश्वर में विश्वास करते थे, जिसे वेे सत्तपुरुष और सत्तनाम कहते थे। आल इन्डिया आदि धर्म मिशन, दिल्ली के रिसर्च फोरम द्वारा प्रकाशित ‘‘आदि अमृत वाणी श्री गुरु रविदास जी’’ में ये शब्द ‘सोऽहम् सत्यनाम’ के साथ इस रूप में मिलते हैं-
‘ज्योति-निरन्जन-सर्व-व्याप्त-र-रंकार-ब्याधि-हरण-अचल-अबिनासी-सत्यपुरुष-निर्विकार-स्वरूप-सोऽहम्-सत्यनाम।।’
किन्तु गुरु रविदास के जिस पद में ‘सत्तनाम’ शब्द आता है, वह उनका यह पद है, जो अत्यन्त प्रसिद्ध है-
अब कैसे छूटे सत्तनाम रट लागी।
प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी, जाकी अंग-अंग बास समानी।
 बीरभान दिल्ली के निकट पूर्बी पंजाब में नारनौल के पास बृजसार के रहने वाले थे। उन्होंने एक पोथी भी लिखी थी, जिसका महत्व सिखों के गुरु ग्रन्थ साहेब के समान था और जोै सभी  सतनामियों के लिये पूज्य थी।
 कहा जाता है कि सतनामी-विद्रोह के बाद बचे हुए सतनामी भागकर मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़  इलाके में चले गये थे। सम्भवतः उन्हीं सतनामियों में 18वीं सदी में गुरु घासीदास (1756-1850) हुए, जिन्होंने सतनामी पन्थ को पुनः जीवित कर एक व्यापक आन्दोलन का रूप दिया। यह आन्दोलन इतना क्रान्तिकारी था कि जमीदारों और ब्राह्मणों ने मिलकर उसे नष्ट करने के लिये बहुत से षड्यन्त्र किये, जिनमें एक षड्यन्त्र में वे उसे रामनामी सम्प्रदाय में बदलने में कामयाब हो गये। इसके संस्थापक परसूराम थे, जो 19वीं सदी के मध्य में पूर्बी छत्तीसगढ़ के बिलासपुर इलाके में पैदा हुए थे। कुछ जमींदारों और ब्राह्मणों ने मिलकर भारी दक्षिणा पर इलाहाबाद से एक कथावाचक ब्राह्मण बुलाया और उसे सारी योजना समझाकर परसूराम के घर भेजा, जिसने उन्हें राजा राम की कथा सुनायी। परसूराम के लिये यह एकदम नयी कथा थी। इससे पहले उन्होंने ऐसी राम कथा बिल्कुल नहीं सुनी थी। वह ब्राह्मण रोज परसूराम के घर जाकर उन्हें रामकथा सुनाने लगा, जिससे प्रभावित होकर वह सतनामी से रामनामी हो गये और निर्गुण राम को छोड़कर शम्बूक के हत्यारे राजा राम के भक्त हो गये। उस ब्राह्मण ने परसूराम के माथे पर राम-राम भी गुदवा दिया। ब्राह्मणों ने यह षड्यन्त्र उस समय किया, जब सतनामी आन्दोलन चरम पर था और उच्च जातीय हिन्दू उसकी दिन-प्रति-दिन बढ़ती लोकप्रियता से भयभीत हो रहे थे। वैसे सतनामी आन्दोलन में षड्यन्त्र के बीज गुरु घासीदास के समय में ही पड़ गये थे, जब उसमें भारी संख्या में ब्राह्मणों और अन्य सवर्णों ने घुसपैठ कर ली थी।

सारंगढ़ राजघराना की जानकारी :- 

• Raja UDEBHAN SINGH, Raja of Sarangarh
• Raja BIRBHAN SINGH, Raja of Sarangarh
• Raja UDHO SAI SINGH, Raja of Sarangarh -/1736
• Raja KALYAN SAI, Raja of Sarangarh 1736/1777
• Raja VISHWANATH SAI, Raja of Sarangarh 1777/1808
• Raja SUBHADRA SAI, Raja of Sarangarh 1808/1815
• Raja BHIKHAN SAI, Raja of Sarangarh 1815/1828, died 5th January 1828.
• Raja TIKHAN SAI, Raja of Sarangarh in 1828
• Raja GAJRAJ SINGH, Raja of Sarangarh 1828/1829, died May 1829.
• Raja SANGRAM SINGH, Raja of Sarangarh 1829/1872
• Raja BHAWANI PRATAP SINGH, Raja of Sarangarh 1872/1889, born about 1865, died in September 1889.
• Raja RAGHUBIR SINGH, Raja of Sarangarh 1889/1890, married and had issue. He died 5th August 1890.
• Rani Man Kunwar Devi, Zamindarani of Pandaria, married Raja Raghuraj Singh of Pandaria. She died sp?.
• Raja Bahadur Jawahir Singh (qv)
• Raja Bahadur JAWAHIR SINGH, Raja of Sarangarh 1890/1946, born 3rd December 1888 and succeeded 5th August 1890 (2nd October 1890), C.I.E., educated at Rajkumar College, Raipur; married and had issue. He died 11th January 1946.
• Raja Naresh Chandra Singh (qv)
• Rani Basant Mala Devi, married Raja Chakradhar Singhji of Raigarh, and had issue.
• Raja NARESH CHANDRA SINGH, Raja of Sarangarh 1946/1987, born 21st November 1908, educated at Rajkumar College, Raipur; M.L.A. (Madhya Pradesh), Former Chief Minister of Madhya Pradesh in 1969, married 1stly, 15th April 1935, Rani Shrimati Tulsi Manjari Devi, eldest daughter of Diwan Narayan Singh, Zamindar of Fatehpur, married 2ndly, 1945, Rani Lalita Devi of Phuljhar (later the Rajmata of Sarangarh after 1987), she had the distinction of being the first unopposed lady Member of the Legislature in M.P. (and till now the only one in M.P. and later in Chhattisgarh), and had issue, four daughters and a son. He died 11th September 1987.
• Rajkumari Shrimati Rajni Gandha Devi (by first wife), Member of the Lok Sabha 1967/1970, married Col. (ret'd.) Virendra Singh of Imlai Zamindari near Jabalpur in M.P., and has issue.
• Nandita Singh
• Chandravir Singh
• Rajkumari Shrimati Kamla Devi, born 26th January 1947, Member of the Legislature and minister in the State of Madhya Pradesh for 18 years (1972/1990). Presently a member of the Public Service Commission, Madhya Pradesh; married Dr. Lal Bhupal Singh of Malkharoda Zamindari, died in 1998, and had issue, a daughter.
• Mrinalika Singh, born 23rd May 1978.
• Raja Shishir Bindu Singh (qv)
• Rajkumari Shrimati Pushpa Devi, born 18th May 1948 Raipur, Madhya Pradesh; educated at St. Joseph's Convent, Sagar and Maharani Laxmibai College, Bhopal and Vikram University, Ujjain; Member of the 7th Lok Sabha 1980/1985, 8th Lok Sabha 1985/1989 and the 10thLok Sabha, an active menber of the Indian National Congress Party.
• Rajkumari Shrimati Dr. Menka Devi, born 8th July 1951, is working with an NGO named after her father in the field of Social Medicine; married Dr. Parivesh Mishra of Bhopal, and has issue.
• Kulisha Mishra, born 19th February 1986.
• Rajkumari Shrimati Purnima Devi, born 13th May 1957, married Mr. Steve Ellison.
Raja SHISHIR BINDU SINGH, Raja of Sarangarh (see above) 
 

Sunday, 8 May 2016

सतनाम परियोजना 
        छत्तीसगढ प्रांत में अनु.जाति (सतनामी) की संख्या 24.19 लाख है, जो कि कूल जनसंख्या का 11.6 प्रतिशत है। यह समाज परम पूज्य गुरू घासीदास जी को अपना धर्म प्रवर्तक मानता है। छत्तीसगढ का ग्राम गिरौदपुरी उनका मुख्य स्थान है। छत्तीसगढ में सतनामी समाज को मतांतरित करने का खेल बहुत पूराना है, अंग्रेजों के समय राज्य के अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में जातिवादी प्रथाएं खुले रूप से चलन में रहा, जिसके फलस्वरूप सतनामियों को अनेक भेदभाव व अपमान जनक कार्य करने को विवश होना पड़ा। शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार के लिये दर-दर भटकना पड़ा।        
 धर्मांतरण के लिये यह परिस्थिति एक महत्वपूर्ण कारण बनी। सतनामी समाज गुरू परंपरा को मानता है और मूर्ती पूजा का विरोध करता है। धर्मजागरण द्वारा सन् 2004 से सतनाम परियोजना का संचालन किया जा रहा है। धर्मजागरण के अ.भा. सह प्रमुख श्री राजेन्द्र प्रसाद जी की परिकल्पना से प्रांत में समरस्ता यात्रा निकालने की योजना बनाई गई, इस हेतु वर्ष 2004, 2006, 2011 एवं 2014 में परम पूज्य गुरू घासीदास जी की सतनाम संदेश यात्रा निकाली गई। 

पहली यात्रा में 13 सौ गांव से 4 लाख लोग शामील हुवे। इस कार्यक्रम में मूर्ती पूजा के स्थान पर चरण पादूका का पूजन किया गया। जिसमें सभी समाज का जबरदस्त समर्थन प्राप्त हुआ। सतनामी समाज द्वारा अद्भूत स्वागत एवं विराट जन सैलाब गुरु के दर्शन हेतु उमड़ पड़ा गागर में सागर सा महशूस होने लगा। सन् 2004, 2006 एवं 2011 में भी अद्भूत स्वागत हुआ। समाज के अन्दर विचारों का मन्थन प्रारंभ हुआ। 
प्रत्येक व्यक्तियों में धर्मान्तरण के प्रति रोष देखे गये परिणाम स्वरुप विचार गोष्ठी, सामाजिक सम्मेलन, बैठकों का दौर प्रारंभ हुआ। सभी के दिलों दिमाग में एक ही विषय मतान्तरण रोकना, घर वापसी कराना, पादरियों और मुसलमानों को गांवों में घुसने नहीं देना, इसका परिणाम 150 से अधिक गांव ईसाई मुक्त हुए। अब समाज के लोग स्वस्फूर्त घर वापसी कर रहे है।
धर्मजागरण को यह कल्पना नही था कि इस कार्य को समाज का व्यापक सहयोग प्राप्त होगा ? लेकिन प्रांत प्रमुख श्री राधेश्याम जलक्षत्री जी के कुशल नेतृत्व में प्रांत सतनाम परियोजना प्रमुख भाई दीनानाथ खुंटे के द्वारा समाजिक बैठकों में धर्मांतरण विषय को लगातार उठाने के कारण प्रांत में मतांतरण तो रूका ही धिरे-धिरे समाज में जागरण पैदा हुआ और समरसता का निर्माण हुआ। सभी वर्गाे के लोग गुरू बाबा घासीदास जी के उपदेशों को मानने लगे और सामाजिक सदभाव का वातावरण बनने लगा है। यह अद्भूत कार्य है इस काम में समाज के हर वर्ग के लोगों का सहयोग भी मिल रहा है। इन यात्राओं का समाज में बड़ा व्यापक प्रभाव पड़ा। समाज में नव जागरण का दौर चला और समरस्ता व भाई-चारे का निर्माण होने से हिन्दुत्व भाव को समझने में लोगों ने रूची दिखाई है। 
पहली यात्रा में समाज के धर्मगुरू जगतगुरू श्री विजय गुरू जी पूरे समय साथ रहे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह प्रांत प्रचारक रहे श्री विजय देवांगन जी भी यात्रा के साथ चलते थे। प्रांत संघचालक मान. श्री बिसराराम यादव जी, जामड़ी आश्रम के संत पूज्य श्री राम बालकदास जी, विश्व हिन्दू परिषद के प्रमुख श्री रमेश मोदी जी तथा कई स्थानों पर छत्तीसगढ़ सरकार के मुख्यमंत्री डाॅ. रमन सिंह जी एवं मंत्री मंडल के अनेक सदस्यों ने यात्रा का स्वागत किया।
 इसी प्रकार सभी यात्राओं में साधु संतों के साथ समाज के प्रबुद्धजनों का भरपुर सहयोग प्राप्त हुआ।  

                            @ हेमंत कुर्रे 


Wednesday, 16 March 2016

वर्ण व्यवस्था व छुआछूत भिन्न है:-

एक भ्रम समाज में यह काम कर रहा है कि वर्ण व्यवस्था में छुआछुत के किटाणु विद्यमान है किन्तु ऐसा बिल्कुल नहीं है। मुस्लिम आक्रमणों के पूर्व हिन्दु समाज में वर्ण व्यवस्था तो थी किन्तु छुआछुत नहीं थी। शुद्र व अस्पृश्य एक नहीं अलग-अलग स्थिति है। 

परिस्थितिवश अपवित्रता व जन्मना छुआछुत भिन्न है:-
दूसरा व्यक्तिगत व परिस्थितिवश छुआछुत एवं वर्गगत जन्मना छुआछुत इनमंे भी अंतर समझना आवश्यक है। दोनों को कभी-कभी एक समझ लिया जाता है। इस कारण भी बहुत भ्रम निर्माण होता है।
(क) परिस्थितिवश अपवित्रता:- जैसे प्रसूति अवस्था में माता अस्पृश्य होती है किन्तु यह काल समाप्त होने पर स्थिति सामान्य हो जाती है। जैसे - हृदय रोगियों के कमरे मेे जूते आदि पहन कर नहीं जाने दिया जाता, टी.बी. या अन्य संक्रामक रोगों में शेष लोगों से रोगी को अलग रहने की सलाह दी जाती है। आपरेशन के बाद बिना स्नान आदि किये डाॅक्टर अस्पृश्य जैसे ही रहते हैं। और भी अनेक उदाहरण हो सकते है किन्तु यह अस्पृश्यता अस्थाई होती है और परिस्थितियों पर निर्भर करती है। यह हमारे चिंतन का विषय नहीं है।
(ख) समाजगत जन्मता छुआछुत:- यह वह स्थिति है जिसमें जन्म से ही कुछ लोग अस्पृश्य मान लिए जाते हैं। हमारे चिन्तन का विषय यही वर्गगत जन्मना छुआछुत है। जिसे सतनामियत नहीं मानता है। परम पूज्य गुरू घासीदास जी ने मानव समाज में व्याप्त उच-निच, छुआछुत की भावनाओं का पूरजोर विरोध किया और मनखे-मनखे एक समान का संदेश जन-जन तक पहुचाया। परमपूज्य गुरू घासीदास जी के सत् उपदेशों को मानने वाले सतनामी कहलाए जो आज भी सतनाम धर्म का पालन कर रहे हैं ।
सामाजिक विघटन का षड़यंत्र
आज अपने देश के सामने जो विभिन्न समस्याएं खड़ी है उनमें से एक धर्मान्तरण की है। सतनामी समाज के दुर्बल घटकों को बहला फुसलाकर अपने धर्म में ले जाने का यह सिलसिला प्रारंभ में इस्लाम ने और बाद में ईसाईयों ने इस देश मंे शुरू किया था। यह क्रम आज भी जारी है और ग्रामीण तथा वनांचलों में रहने वाले गरीब, निरक्षर तथा भोले-भाले बंधुओं का धर्मान्तरण कर उन्हें मुस्लिम या ईसाई बनाकर सतनामी समाज को कमजोर करने के प्रयास चल रहे हैं।
भारत देश में आजादी के पश्चात भी धन के प्रयोग से मिशन स्कूलों के माध्यम से या अन्य प्रकार से सतनामी समाज के दुर्बल, जनजाति घटकों का मतांन्तरण करने का उनका कार्य अधिक व्यापक रूप से आज भी चल रहा है। ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाये जा रहे मिशन स्कूल मतान्तरण के सबसे बड़े केन्द्र हैं। हिन्दुओं के धार्माचार्य तथा धर्म के प्रति घृणा का भाव निर्माण करना यह इन स्कूलों का प्रमुख कार्य है। 
भारत में मतान्तरण के लिए ईसाई संगठनों ने स्कूल, कालेज, अस्पताल और अन्य सेवा प्रकल्पों का सहारा लिया और उसमें उनको काफी हद तक सफलता भी मिली लेकिन धीरे-धीरे इनकी उपयोगिता समाप्त हो गयी। इसके बाद भारत में मतान्तरण करने के लिए कुछ अन्य उपयों एवं तरीकों का अवलम्ब करने के लि चर्च के नेताओं ने ईसाइयत तथा चर्च को जीवित रखने और व्यापक करने हेतु एक नया सिद्धांत खोज निकाला और वह था ‘लिबरेशन थियोलाॅजी’ यानी मुक्ति दर्शन। भारत में बहुत बड़ी संख्या में ऐसा एक वर्ग है जो दलित नाम से पहचाना जाता है। ईसाई संस्थाएं तथा चर्च इन दलितों का मतान्तरण कर उन्हें भारत की मूल सामाजिक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक धरोहर से काटने का प्रयास कर रहे हैं। इन दलितों के बीच विभिन्न सेवा कार्य चलाकर उनको धन आदि का प्रलोभन देकर उनका मतान्तरण किया जा रहा है। 
दलित समाज से जो मतान्तरित होकर ईसाई बने हैं ऐसे लोगों की भी चर्च उपेक्षा करता है। चर्च संगठनों के भीतर उनका वही स्थान है जो उनके मतान्तरण के पूर्व हिन्दु समाज में था। ईसाई मिशनरियों ने हिन्दु समाज में जाति प्रथा की आड़ में शोषण और उत्पीड़न का शोर  मचाकर ऐसे दलित हिन्दुओं का मतान्तरण किया। ईसाइयत के बारे में यह दावा किया जाता है कि यह जाति आधारित पंथ नहीं है चर्च की नजर में सभी लोग समान हैं, कोई ऊंच-नीच नहीं परंतु यह भी सत्य है कि चर्च में अनुसूचित जाति के लोगों को दलित ईसाई के नाम से जाना जाता है। तथा उनके साथ सब प्रकार के भेदभाव भी किया जाता है। 
ईसाइयत का मुक्ति दर्शन वास्तव में यह मुक्ति का मार्ग समाज को विखंडित करने का एक षड़यंत्र है। ये बताते है कि भारत एक राष्ट्र नहीं है और ना ही भारतीय समाज एकरस है। यहां 5249 संस्कृतियां है जिनकी हिन्दु संस्कृति की आक्रामकता से रक्षा होना बहुत जरूरी है। इसी षड़यंत्र के चलते पहले सिक्ख, बौद्ध व जैन मत और सतनाम पंथ को हिन्दु धर्म और संस्कृति से अलग कहा गया। सन् 1932 से दलितों की अलग गणना होने लगी और वनवासी अनुसूचित जाति को मूल निवासी करार दिया गया। जो भारत लाखों-करोड़ों वर्षों से एक समुदाय, एक संस्कृति, एक राष्ट्र है एक जनह है वहां उसे 5249 भागों में बांटकर चर्च संगठन हिन्दुत्व बनाम 5249 संस्कृतियों का संघर्ष खड़ा कर रहा है।
भारत में चलाये जा रहे व्यापक धर्म परिवर्तन या मतान्तरण के कार्य का एक ही उद्देश्य है भारत को पुनः विभाजित करना और एक संघ भारतीय समाज को विघटित करके अमेरिका जैसे साम्राज्यवादी देश का गुलाम बनाना ही है। हम इस बात को अच्छी प्रकार से समझे और इस षड़यंत्र को विफल बनाएं। इसी में सतनामी समाज का और समूची मानवता का कल्याण है। 

सतनामियत


सतनामियों का एक सर्वमान्य वर्गीकरण कठिन ही नहीं वरन असंभव कार्य है, लेकिन फिर भी क्षेत्रिय मान्यताओं और धारणाओं के आधार पर यह एक प्रयास है। 
सतनामी कोई जाति नहीं बल्कि यह वह पंथ है जिस पर कई शताब्दियों पूर्व से ही मानव का एक बहुत बड़ा समुदाय चलते आ रहा है। अर्थात अनेकों वर्षों पहले से ही या गुरू घासीदास जी के अवतार (जन्म) लेने के पूर्व से ही मानव समाज के एक बहुत बड़े समुदाय की आस्था इस धर्म मार्ग से जुड़ा हुआ है। इस धर्म के पालन करने वाले लोग सत्य और अहिंसा का पालन करते आ रहे हैं। सतनाम को मानने वाले लोग जब आपस में मिलते हैं तब ‘‘जय सतनाम’’ अथवा ‘‘साहेब सतनाम’’ कहकर अभिवादन करते हैं। वे प्रत्येक प्राणियों में सत्य के निवास को स्वीकारते हैं और इस कारण ही वे जीवात्मा स्वरूपी सत्यात्मा को परम सत्य मानकर उसका अभिवादन करते हैें। समाज में ऐसी मान्यताएं है कि सतनाम एक महामंत्र है और इस शब्द का उच्चारण अनेकों वर्ष पहले से इस पृथ्वी में उच्चरित होते आ रहा है। इस सतनाम शब्द के उच्चरण करने वाले जाप करने वाले लोगों अथवा समुदाय को सतनामी कहा जाता है। 
प्रायः सतनामी सरल स्वभाव के और सादा जीवन व्यतीत करने वाले होते है। ये लोग बाहरी आडम्बरों से मुक्त रहते हैं। सत्य कर्म ही इनकी पूजा होती है। जीव हत्या तथा मूर्ति पूजा नहीं करते। जीवित अर्थात बोलता प्राणि अथवा नारी शक्ति की पूजा की जाती है। माता-पिता, गुरू एवं संत महात्माओं की आरती पूजा की जाती है। गुरू गद्दी एवं जैतखाम ही देव तुल्य माजा जाता है। आज परमपूज्य गुरू घासीदास जी के मूल कर्म क्षेत्र छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि पूरे भारत देश में उनके अनुयायियों की संख्या दिनों दिन बढ़ते ही जा रही है। 
सतनामी जाति के उद्भव से लेकर रीति-रिवाज, रहन-सहन, परम्परा तथा वर्ण के विषय में अनेक विद्धानों ने पुस्तकें, ग्रन्थ लिखी है तथा गुरू घासीदास जी के जीवन चरित्र पर शोध ग्रंथ भी लिखे गये हैं। जिसमें सद्ग्रंथ लेखक श्री मनोहरदास नृसिंह, पं.श्री सखाराम बघेल, श्री सुकुलास धृतलहरे, राजमहंत श्री नंकेशरलाल टण्डन, श्री खेमराज मनोहरदास नृसिंह, राजमहंत श्री नम्मुराम मनहर, श्री शंकरलाल टोडर, श्री मंगत रविन्द्र, डाॅ. अनील भतपहरी आदि प्रमुख है। इसके अलावा विदेशी रचनाकारों ने भी अन्वेषण करके अपने विचारों को मूर्तरूप दिया है लेकिन विदेशी लेखकों या मानव शास्त्रीयों ने जो भी लिखा है उसमें उनका एक सा ही दृष्टिकोण परिलक्षित होता है, वह यह कि उनकी सोच मूलतः भारतीय न होकर विदेशी ही है। जैसे कि उदाहरणार्थ- उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका में वहां के मूल जन जातियों को समूल नष्ट करके यूरोपिय लोगों ने देश बनाया। वहां के मूल निवासी रेड इण्डियन्स एवं श्वेत प्रजातियों में धर्म, संस्कृति और प्रजाति का अंतर रहा है। यूरोप में जन जातिय संस्कृतियां हमेशा के लिए लुप्त कर दी गई।
शास्त्र हमें बताता है कि सृष्टि की उत्पत्ति काल से ही यह सनातन समाज है। हमारे यहां गांव में रहने वाले ग्रामवासी, पहाड़ो में रहने वाले गिरीवासी जंगल में रहने वाले वनवासी, नगर में निवास करने वाले नगरवासी कहे जाते हैं।
छत्तीसगढ़ में सतनामियों के बीच भी कई मत व धारणाएं आकार लेने लगी है और आम जन-जीवन में इनकी शाखाएं स्थापित हो चुकी है। जैसे- गायत्री परिवार, ब्रम्हकुमारी, राधास्वामी सतसंग, अंबेडकर वादी, बौद्धिष्ट, मुस्लिम एवं इसाईयत में मतांतरित होना। उल्लेखनिय है कि सभी शाखाएं अपने-अपने प्रचार में सघन रूप से प्रयासरत है इनमें कुछ मे तो सांस्कृतिक रीति-रिवाजों में घोर विरोध है। इस बीच आम सतनामी दिग्भ्रमित होकर बौखला सा गया है, वह किधर जाये ? किसकी बात सूने ?
अतः अब यह आवश्यक हो गया है कि संक्रमण काल में समाज को किसी दिशा में अग्रसर करना है, सतनामी समाज सोंचे।
वैसे भी हर व्यक्ति चाहे वह युवा हो, वृद्ध हो, बालक हो, बालिका हो, स्त्री-पुरूष सभी पर समान रूप से जिस जाति मेे उसने जन्म लिया है, उस जाति का है, समाज में जाति के कारण ही मान-सम्मान, शासन से आरक्षण छूट आदि की पात्रता जाति के ही कारण संभव है। उस जाति के लिए वह स्त्री या पुरूष क्या करता है ? यह उसके स्वयं के कर्म पर आधारित है। उदाहरण ज्वलंत रूप में परमपूज्य गुरू घासीदास जी, राजा गुरू बालकदास जी एवं करूणमयी माता मिनीमाता इसके प्रमाण हैं, इन्होंने समाज को नेतृत्व प्रदान कर अपने जाति को गौरवान्वित किया है। हालांकि लम्बे समय से समाज में एक धारणा बनी है कि हिन्दु समाज व्यवस्था छोटे-बड़े, छूत-अछूत की भावना वाली व्यवस्था है। कुछ लोगों ने अपने को पूज्य बना लिया और दूसरों को व्याज्य बना दिया। यह ऐसी व्यवस्था है जिसमें कुछ लोग जन्म से पूज्य व सम्मानित पैदा होते है और कुछ जन्म से ही व्याज्य व अस्पृश्य होते हैं। हिन्दु समाज के रचनाकार जिन्होंने सभी जीवों में परमात्मा का दर्शन किया, कण-कण में भगवान का साक्षात्कार किया और समस्त मानव जाति को एक कुटुम्ब के रूप में देखा, क्या ऐसी समाज की रचना किये होंगे ? इस स्थिति पर गंभिरतापूर्वक पुनर्विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि वर्तमान स्थिति हमारी स्वाभाविक स्थिति नहीं है। हमें अपने समाज की स्वभाविक व्यवस्था को खोजना पड़ेगा और इसके लिए थो़ड़ा अतीत में जाना होगा।

सच्चा संत पंथी राम...


सनातन सतनाम धर्म ऐसा धर्म है जिसके अनुयायी सत्य और अहिंसा का पालन करते हैं। मांस मदिरा का सेवन नहीं करते। सभी प्राणियों में ईश्वर का वास मान कर उसकी पूजा करते है। तन-मन और आचरण की पवित्रता पर जोर देते हैं। पृथ्वी के समस्त प्राणियों के प्रति दया भाव रखते हैं। आईये हम अपने तथा अपने धर्म के विषय में चिंतन करें।
सत्यमेव जयते नानृतं। सत्येन पंथा बितते देवयानम।।
(मुण्डकोपनिषद्)
धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना।।
(श्रीरामचरित्रमानस)
सत्य ही धर्म है और सच्चा धर्म सत्याचरण को माना गया है। सत्य के समान कोई दूसरा धर्म नहीं यह बात भगवान ने केवल अपनी सम्मति से नहीं कही वरन उसे वेद, शास्त्र और पुराणों से समर्पित बताया। रघुकुुल की आदि मर्यादा सत्याचरण की थी। जो बात जैसी हो, जैसे देखें, सुनें वैसे ही माने और कहें, यही सत्य है। इस सत्य का महात्म्य श्रुति तथा पुराणों में पूरी तरह गाया गया है। 
जपहु जाई शंकर सतनामा ।हृदय होही  तुरंत विश्रामा ।।
(श्रीरामचरित्रमानस)
भगवान राम ने केवल सत्य का प्रतिपादन ही नही किया वरन अपनी वंश परम्परा के अनुकूल आचरण करके उन्होंने अमर कीर्ति प्राप्त की। वे सूर्य कूल के भूषण थे। उनका आचरण उस कुल मर्यादा के अनुकूल था। जिसमें सत्यवादी हरिशचन्द्र उत्पन्न हुए थे। जिन्होंने सत्य के पालन के लिए राज-पाट खोने में संकोच नहीं किया, वरन अपने को एक डोम के हाथों बिकवा कर श्मशान में मुर्दा जलाने वालों तक से कर उगाहने की नीच टहल स्वीकार की। अपनी राज महिषी और पुत्र को साहूकार के हाथों बिकवा दिया। सत्य को कसौटी पर परीक्षण के समय भीषणतम आघात को उन्होंने सहर्ष सहन किया, लेकिन सत्य पथ से विचलित न हुए। सर्प के डशने से मृत्यु को प्राप्त रोहित को उसकी मां रोती-बिलखती श्मशान में जलाने लाती है। हरिशचन्द्र को सत्यता का ज्ञान होता है। पुत्र के लिए फूट-फूट कर वे बिलखते हैं, लेकिन बिना कर लिए उसे भी जलाने नहीं देते। माता जब अपनी आधी साड़ी फाड़ कर देती है तभी पुत्र को जलाने की अनुमति उसे मिलती है।
अपने पिता महाराज दशरथ की सत्य निष्ठा पर आंच न आये, वे पुत्र विषयक मोह में फसकर कहीं सत्याचरण से डिग न जाये इसलिए राम ने राज-पाट त्याग कर वन जाने में क्षणमात्र भी विलंब नहीं किया। उनके सामने अपने महान पूर्वजों का आदर्श था जिसका वे अनुशरण कर रहे थे।
राम और भरत के चैदह वर्ष तक कष्टपूर्ण जीवन बिताने में आपसी आधार सत्य पर टिका रहा और उसी से दोनों का प्रेम एक दूसरे के प्रति निरंतर बढ़ता गया। यह भी भली-भांति विदित है कि महाराज दशरथ ने सत्य कके लिए राम को त्यागा था और उनके प्रति प्रेम निर्वाह के लिए प्राण तक दे दिये। दशरथ के सत्य-पालन के लिए किए गए महान बलिदान को राम निरर्थक सिद्ध होने देना नहीं चाहते थे। इससे आगे का इतिहास बताता है कि प्रभुरमा ने इस प्रतिज्ञा को पूरा करके देवताओं और सज्जनों के प्रति अपने कर्तव्य का पालन किया।
सत्य के उंचे सिद्धांतों का महान पुरूषार्थ द्वारा पालन करना सबके लिए संभव नहीं है। लेकिन दिन-प्रतिदिन के जीवन में सरल, निष्कपट और खरे बनना सत्यता का सर्वग्रहा व्यावहारिक स्वरूप है जो सामान्य जनों के लिए पालनीय है। बड़े सत्यों और प्रतिज्ञाओं के पालन की तूलना में हमारे सामाजिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए इसकी आवश्यकता अधिक है। आज के परिपे्रक्ष्य में देखें तो प्रभुराम ही सच्चे सतनामी की भांति जीवन जीये जिसका अनुकरण किया जाना चाहिए.....

ःः सतनाम धर्म:ः

         सच्चा धर्म वही है जिसमें सबका कल्याण हो, जो किसी को किसी भी तरह से छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच न समझे। जिस धर्म में मानव को मानव नही समझा जाता, उसके साथ अपनत्व का व्यवहार नही किया जाता वह धर्म, धर्म नही बल्कि धर्म के नाम पर अपने स्वार्थ पूर्ती के लिये रचा गया साजिस है। सतनाम् धर्म में ऐसा किसी भी प्रकार की खामियाँ नही दिखती जो हमारे मन में प्रश्न पैदा करे। सतनाम् धर्म का संक्षिप्त में मुख्य विशेषतायें निम्न है।
१. सतनाम धर्म प्रत्येक मानव को मानव का स्थान देता है ।
२. सतनाम धर्म में न कोई छोटा और न कोई बड़ा होता है, इसमें सभी को समानता का अधिकार प्राप्त है।
३. जो ब्यक्ति सतनाम् धर्म को ग्रहण कर लेता है, उसके साथ उसी दिन से समानता का ब्यवहार जैसे बेटी देना या बेटी लेना प्रारम्भ हो जाता है ।
४. सतनाम् धर्म किसी भी जाति या धर्म का अवहेलना नही करता ।
५. सतनाम् धर्म हमेशा सच्चाई के पथ पर चलने की शिक्षा देता है ।
६. सतनाम् धर्म का प्रतीक चिन्ह जैतखाम है ।
७. सतनाम् धर्म में ७ अंक को शुभ माना जाता है ।
८. सतनाम् धर्म के मानने वाले दिन सोमवार को शुभ मानते है, इसी दिन परम पूज्य बाबा गुरू घासीदास जी का अवतार हुआ था ।
९. सतनाम् धर्म में गुरू गद्दी, सर्व प्रथम पूज्यनीय है ।
१०. सतनाम् धर्म में निम्न बातों पर विशेष बल दिया जाता है:
सतनाम् पर विश्वास रखना ।
जीव हत्या नही करना ।
मांसाहार नही करना ।
चोरी, जुआ से दुर रहना ।
नशा सेवन नही करना ।
जाति-पाति के प्रपंच में नही पड़ना ।
ब्यभीचार नही करना ।
११. सतनाम् धर्म के मानने वाले एक दुसरे से मिलने पर ‘जय सतनाम‘ कहकर अभिवादन करते हैं।
१२. सतनाम् धर्म में सत्यपुरूष पिता सतनाम् को सृष्टि का रचनाकार मानते हैं।
१३. सतनाम् धर्म निराकार को मानता है, इसमें मूर्ती पूजा करना मना है।
१४. सतनाम् धर्म में प्रत्येक ब्यक्ति ‘स्त्री-पुरूष‘ जिसका विवाह हो गया हो, गुरू मंत्र लेना ‘कान फुकाना‘ अनिवार्य है।
१५. सतनाम् धर्म में पुरूष को कंठी-जनेऊ और महिलाओ को कंठी पहनना अनिवार्य है।
१६. सतनाम् धर्म में मृत ब्यक्ति को दफनाया जाता है।
१७. सतनाम् धर्म में पुरूष वर्ग का दशगात्र दश दिन में और महिला वर्ग का नौवे दिन में किया जाता है ।
१८. सतनाम् धर्म में मृतक शरीर को दफनाने के लिये ले जाने से पहले पुरूष वर्ग को पूर्ण दुल्हा एवं महिला वर्ग को पूर्ण दुल्हन के रूप में श्रंृगार करके ले जाया जाता है।
१९. परिवार के कुल गुरू जिससे कान फुकाया ‘नाम पान‘ लिया रहता है साथ ही मृतक के भांजा को दान पुण्य दिया जाता है ।
२०. माताओ को जब पुत्र या पुत्री की प्राप्ति होती है तो उसे छः दिन में पूर्ण पवित्र माना जाता है।
२१. सतनाम् धर्म में महिलाओ को पुरूष के जैसा ही समानता का अधिकार प्राप्त है।
२२. सतनाम् धर्म में लड़के वाले पहले लड़की देखने जाते हैं।
२३. सतनाम् धर्म में दहेज लेना या दहेज देना पूर्ण रूप से वर्जित है।
२४. लड़के वाले लड़की पक्ष के परिवार वालो को नये वस्त्र देता है साथ ही दुल्हन को     उसके सारे सृंगार का समान दिया जाता है।
२५. सतनाम धर्म में सात फेरे होते हैं जिसमें दुल्हन, दुल्हे के आगे आगे चलती है।
२६. सतनाम् धर्म में शादी होने पर सफेद कपड़ा पहनाकर तेल चढ़ाया जाता है।
२७. दुल्हे का पहनावा ‘जब बारात जाता है‘ सफेद रंग का होता है । पहले मुख्य रूप से सफेद धोती, सफेद बंगाली और सफेद पगड़ी का चलन था परन्तु आज कल लोग अपने इच्छानुसार वस्त्र का चुनाव कर रहे हैं परन्तु एक बात अवश्य होनी चाहिये कि जब फेरा (भांवर) हो तो सतनाम् धर्म के अनुसार सफेद वस्त्र जरुर पहनना चाहिये ताकि धर्म का पालन हो और शादी सतनाम् धर्म के अनुरूप हो।
२८. दुल्हन के साड़ी व ब्लाउज हल्का पिले रंग का होता है।
२९. सतनाम् धर्म में स्वगोत्र के साथ विवाह करना सक्त मना है।
‘नियम और संस्कार को संक्षिप्त में बताया गया है, परन्तु इतने से ही ज्ञानी जन विस्तृत में समझ सकते हैं‘

सतनाम का पुनरूत्थान...


      परम् पूज्य गुरू घासीदास बाबा जी के द्वितीय सुपुत्र राजा गुरू बालकदास जी के सतनाम आंदोलन का असर इतना अधिक हुआ कि अंग्रेजो ने सन् १८२५ में पहली बार शिक्षा का द्वार हिन्दु धर्म में शुद्र कहे जाने वालो के लिये खोले। गुरू बालकदास जी के एकता और समरसता के आंदोलन से अंग्रेज प्रभावित होकर उन्हे राजा घोषित कर हांथी भेंट किये साथ ही अंग रक्षक रखने कि अनुमति भी दिये। शिक्षा के क्षेत्र में हुये इस परिवर्तीत कानून जिसका पुरोधा हमारे गुरू जी रहे हैं। साथीयो धन्य हैं जो हम ऐसे महान गुरू घासीदास जी के सतनाम धर्म अनुयायी है। आज भी अंग्रेजो द्वारा, गुरू बालकदास जी को दिये उपहार स्वरूप अस्त्र-शस्त्र, वस्त्र सब भंडारपुरी धाम में जहाँ राजा गुरू निवास किया करते थे, वहाँ सुरक्षित रखा हुआ है, गुरू वंशज, गुरू बालदास जी के संरक्षण में। जिसे कभी भी जाकर देखा जा सकता है।
यह वही वस्त्र और शस्त्र है, जिसे अंग्रेजो ने सतनामी राजा गुरू बालकदास जी को उपहार में प्रदान किये थे, जिसे गुरू वंशज प्रत्येक वर्ष में एक बार धारण करके संतो के सामने उपस्थित होते हैं ताकि संत समाज को राजा गुरू बालकदास जी द्वारा किये अदम्य और अनुकरणीय कार्य को याद दिलाया जा सके। जिससे समाज में नई जोश और नई चेतना का संचार होते रहे...
समाज में ऐसी भी मान्यताएं है कि नारलौन में सतनामी सुमता, शक्ति और संपति के नाम से विख्यात थे तथा नारलौन से छत्तीसगढ़ आने के समय गुण, ज्ञान, अर्थ और धर्म से परिपूर्ण थे। तथा छत्तीसगढ़ में सतनामी, अन्न-धन्न-संपदा के नाम में मशहुर थे। जिसका जीता जागता उदाहरण है कि अकेले पुरानी मुंगेली तहसील में जो वर्तमान में चार तहसीलो में विभाजित है, मुंगेली, पंडरिया, लोरमी तथा पथरिया (अब मुंगेली जिला बन चुका है) के अंतर्गत २८० मालगुजार तथा २६२ ठेकेदार मालगुजार थे। कुल ५४२ सतनामी मालगुजार का सरकारी रिकार्ड प्रमाणित करता है । (सतनामीयो के स्थिति का आकलन, धार्मिक संस्कृति का आकलन, रिति-रिवाज का आकलन इन क्षेत्रो में निवासरत सतनामीयो के बारे में जाने-समझे बिना कदापि सार्थक नही हो पायेगा) 
मेरा मानना है कि समाज के मेला समिती को गिरौदपुरी धाम में सतनाम धर्म के विपरित जितना भी क्रिया कलाप होता है, उसे रोकने के लिये हर संभव प्रयासरत रहना चाहिये। जैसे-
1. भोजनालयों में सिर्फ शुद्ध शाकाहारी भोजन ही बनाये जाये, इसके लिये उचित दिशा निर्देश बनायें ।
2. जितने भी दुकान लगाये जातें हैं उन्हे कड़ी निर्देश दिया जाय कि, किसी भी तरह के नशीले पदार्थ की बिक्री न करें ।
3. जो श्रद्धालू भुंईया नापते हुये गुरू दरबार तक जाते हैं, उनके लिये अलग से रास्ते बनाये जाने चाहिये, कम से कम तपोभूमि प्रवेशद्वार से लेकर मंदिर प्रांगण तक बेरीगेट लगाकर भुंईया नापने वाले भक्तो के लिये सुरक्षित पथ बनाये जायें ।
4. साफ सफाई का उचित प्रबंध करें ।
5. सतनामी एवम सतनाम धर्म के सभी धार्मिक और सामाजिक मान्यताओ के बारे में सद्-प्रवचन का आयोजन किया जाना चाहिये ।
6. गिरौदपुरी ग्राम में जहाँ गुरूजी का अवतार हुआ है उस पवित्र स्थान को गुरू स्मारक के रूप में समाज को समर्पित करें ।
7. पूर्ण रूप से ब्यवस्थित और बिना किसी परेशानी के मेला का सफल आयोजन हो इसके लिये पुलिस बल की विशेष ब्यवस्था जगह जगह पर किया जाय ।
आशा है मेला को संचालित करने वाले सभी प्रमुख वरिष्ट जन उपर लिखे बिन्दुओ पर विशेष ध्यान देंगे और सतनाम धर्म के साथ गुरूजी के अमर संदेशों को जन जन तक पहुँचायेंगे....!
सतनामी एवम् सतनाम धर्म 
सत से तात्पर्य मुख्य कार्य और नामी से तात्पर्य पहचान। जिस तरह लोहे के कार्य करने वाले को लुहार, कपड़ा धोने के कार्य करने वाले को धोबी, रखवाली करने वाला को रखवाला, गाना गाने वाले को गायक, नृत्य करने वाले को नृतक, नशा करने वाले को नशेड़ी, शराब पिने वाले को शराबी, पोथी पुराण के ज्ञानी को पंडित, राज करने वाले को राजा, सेवा करने वाले को सेवक, तपस्या करने वाले को तपस्वी, ठीक उसी तरह ‘सतकर्म‘ करने वाले को ‘सतनामी‘ कहते हैं।
सतनामी ना ही कोई जाति है और नही कोई धर्म, वह तो सतनाम के मानने वालो की पहचान है जिसे आज सतनामी जाति के नाम से जाना जाता है। सतनामी वह है जिसका कर्म सत्य पर आधारित हो और जो सतनाम धर्म को मानता हो। सतनाम धर्म में छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच, छुआ-छुत का कोई स्थान नही है । सतनाम धर्म मानवता वाद पर आधारित है । बाबा गुरू घासीदास जी ने सतनाम धर्म का ब्याख्या इस रूप में किये हैं रू


‘मानव-मानव एक समान‘
मनखे मनखे एक ये, नइये कछु के भेद ।  
जउन धरम ह मनखे ल एक मानीस, उही धरम ह नेक ।।



सतनामी: 
हमारा समाज अंग्रेजों एवं मुगलों के प्रभाव व दबाव के कारन ही कई मत व पंथ में बट गया जिसे कुछ इस प्रकार से समझ सकते है। 

यह निर्गुण निराकार पंथ पर गुरू घासीदास बाबा जी द्वारा बताये सात उपदेशो पर आस्था रखते हैं।
1. दोपहर बाद मवेशियो को हल में नही फांदते।
2. बांझ भैस व गाय से जुताई नही करते।
3. बछिया, पड़वा रहित गाय भैंस का दूध नही पिते।
4. चैका आरती मंगल गीत दशगात्र के समय प्रयोग में लाते हैं।
5. सतनामीयो का झंडा सफेद और चैकोना होता है।
6. जैतखाम, गुरूगद्दी का पूजा करते हैं।
7. भंडारी और साटीदार की मान्यता सतनामी गांवो में अनिवार्य है।
धार्मिक और सामाजिक कार्यो में अगर किसी ब्यक्ति द्वारा अनियमितता पाया जाता है तो ग्राम वासी या फिर गुरू वंश के लोग दंडति करते हैं। हर प्रकार के मांसाहार और धूम्रपान सर्वथा वर्जित है। मृतक भोज, सामाजिक और धार्मिक कार्यो में एक साथ भोजन करना और अंतिम ब्यक्ति के भोजन समाप्त होने पर ही उठना अनिवार्य है ।
रामनामी:
यह निर्गुण निराकार पंथ है जिसे पुज्य श्री परसुराम जी द्वारा स्थापित किया गया माना जाता है इनके अनुयायी अपने षरीर में रामराम गुदवाते (टैटू बनाते) है और प्रभु राम के रूप के स्थान पर उनके नाम पर आस्था रखते हैं और नाम का ही गुणगान करते है। प्रायः 3 प्रकार के रामनामी समाज में मिलते है जिन्हें एकांगी रामराम, मस्तांग रामराम और सर्वांग रामराम कहा जाता है। ये भी जैतखाम का निर्माण करते है लेकिन इनके स्तंभ में रामराम लिखा जाता है। रामनामिओं के वस्त्र में रामराम लिखा जाता है तथा अपने घर में भी ये रामराम लिखाते है। वैसे तो इनकी रहन सहन सतनामियों से भिन्न है लेकिन इनके अधिकांष रिती रिवाज सतनामिओं से मिलते जुलते है फर्क सिर्फ इतना है कि ये अपने षरीर और वस्त्र पर रामराम लिखाते है, जबकी सतनामी राम के नाम से ही चीढने लगते है।
एकांगी रामराम: उन्हे कहा जाता है जिनके षरीर के किसी एक अंग पर रामराम लिखा होता है।  
मस्तांग रामराम: उन्हे कहा जाता है जिनके मस्तक में रामराम लिख होता है।
सर्वांग रामराम: उन्हे कहा जाता है जिनके पूरे षरीर में रामराम लिखा होता है, इन्हे पखषिख रामराम भी कहा जाता है।
आज के समय में कोई अपने षरीर में रामराम नही लिखा रहे है और बहुत से लोग अपने आप को सतनाम से षामील कर लिये है और गुरू घासीदास जी के संदेषों को मानने लगे है।

सूर्यवंशी: 
सूर्यवंशी कहे जाने वाले लोग पहले रोहिदास, बाद में रविदास मंडल और बाद में तथा अब सूर्यवंशी कहलाते हैं। ये शक्ति और त्रिशूल आदि देवी देवताओ की पूजा करते हैं। शाकाहार नही होते और सतनामीयों के गुरू प्रथा को नही मानते तथा इनमें भंडारी, साटीदार नही होते ये मृतक भोज में भोजन एक साथ करने और एक साथ उठने की प्रथा को नही मानते। ये अपने को स्वर्ण हिन्दुओ के सारी रीति-रिवाजो और मूर्ती पूजा करने, और देवताओ को बलि चढ़ाने पर विश्वास करते हैं। जैतखाम, गुरूगद्दी, चैका आदि को नही मानते थे, लेकिन आजकल सूर्यवंशी लोग अपने आपको सतनामी कहलाना पसंद करने लगे है और जैतखाम, पंथी पार्टी आदि को अपनाने लगे हैं ।
देशहा सूर्यवशी और कनौजिया सूर्यवंशी:
इनके रिती-रिवाज और परमंपरा अन्य हिन्दुओ से मेल खाते हैं ये अधिकांशतहः शिव के उपासक हैं और ये पीथमपुर मेला जाते है और वहां इनका मंदिर भी है। इनका रिवाज और सूर्यवंशीयों का रिवाजों में काफी अंतर है, ये लोग जैतखाम को अपने गांव-घरो में नही रखते और ये लोग अपने गंावो में अक्सर रहस बेड़ा बनाते है ।
अब इन तीनो प्रकार के लोगो में निकटता आई है जिसका प्रमुख कारण गिरौदपुरी मेला में इन सभी समुदायों का आगमन होना है पहले सिर्फ और सिर्फ सतनामी लोग ही इस मेला में आते थे लेकिन आज कल ये लोग भी आने लगे हैं और अपने आपको सूर्यवंशी कहलाना छोड़कर सतनामी कहलाना शुरू कर दिये हैं यह सतनामी समाज का बड़प्पन है कि इन लोगो के रिती-रिवाज अलग होने के बाद भी इन लोगो से आपसी मेल-जोल बना रहें हैं।


सतनाम हिन्दू धर्म है यह सामाजिक रिती-रिवाजों और मान्यताओं से समझ मे आता है जैसे-ं
सतनाम धर्म को किसी अन्य धर्म के साखा के रूप में कहीं भी और कभी भी प्रचारित नही किया गया है, बल्कि इसे हिन्दू धर्म की निर्गुण षाखा ही माना गया है।
जैतखाम का स्थापना सामाजिक रूप से उन स्थानो पर कराया जाना चाहिये, जहाँ सामाजिक कार्यक्रम सुगमता पूर्वक संपंन कराया जा सके और स्थापित जैतखाम का नित्य पूजा अर्चना करने का उचित माध्यम सुगमता से उपलब्ध हो साथ ही उचित देख रेख का प्रबंध भी हो किया जाये।
समाज में या किसी भी सामाजिक एवं धार्मिक कार्यक्रम में मांसाहार व नशा सेवन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने के लिये उचित रूप रेखा तैयार करें और दोषियों को सामाजिक दंड देने का उचित नियम बनाया जाये।
जयंती के कार्यक्रम में किसी भी अन्य तरह के नाच गान का आयोजन नही किया जाना चाहिये, सिर्फ और सिर्फ सतनाम धर्म के अनुरूप चैका-पंथी, सत्संग कार्यक्रम का ही आयोजन किया जाय इसका निर्धारण हेतु उचित कदम उठाया जाये।
समाज में उत्कृष्ट कार्य करने वाले सामाजिक संगठन, ब्यक्ति, महिला, प्रतिभावान छात्र-छात्राओ का उचित सम्मान करने के लिये प्रयास करें ताकि अन्यों का भी मनोबल बढ़ें।
समाज के धार्मिक स्थानों में जहाँ मेला का आयोजन होता है, वहाँ कार्यक्रम को सफलता पूर्वक संपंन कराने में सभी अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करें।
समयानुकुल शिक्षा का उचित प्रचार प्रसार करना क्योकि देखने में आता है कि आज शिक्षा को मात्र सरकारी नौकरी के लिये और इतिहास के बारे में जानकारी प्राप्त करने तक ही सीमीत माना जाता रहा है, जबकी शिक्षा रोजगारोन्मुखी और सर्वागीण विकास के लिये है इस बात की ओर ध्यान देना अनिवार्य है।
हमें गर्व है कि हम ऐसे महान कुल में जनम लिये जहाँ गुरू घासीदास बाबा जी के वंशज आज भी विद्यमान हैं। सतनामी समाज ‘गुरू प्रधान‘ समाज है, और रहेगा। हालांकि वर्तमान में अनेक चुनौतियां हमारे सामने है फिर भी समाज में एकरूपता के लिये इसे व्यवहार मे लाने की नितांत आवष्यकता है।
अभिवादन में जय सतनाम कहें।
धर्म के प्रतिक रूप में जैतखाम को स्थान दें।
धर्म ध्वजा के रूप में सफेद चैकोर झंडा ही उपयोग में लाये।
धार्मिक पूजा के लिये चैका-आरती व पंथी को प्राथमीकता दें। 
घर एवं मंदिर में गुरूगद्दी का ही स्थापना करें।
अपने शरीर में धारण करने हेतु कंठी, जनेऊ का ही प्रयोग करें।

सतनामियों का गोत्र वर्णन


1 धृतलहरे 21 चेलक सवाई 41 भुइफोर
2 अजगल्ले 22 जड़कोडि़या 42 भैंसा
3 अरवानी 23 जागड़ा 43 मंडल मरइया
4 आडिल 24 जोलिहा 44 मनघोघर
5 करकल 25 जोगी 45 मनबोहिता
6 कठैइया 26 टड़इया 46 हिरवानी
7 किरही 27 डहरिया 47 जंगरिया
8 बोइर 28 ढीढी 48 सायबंश
9 कुर्रा 29 नौरंग 49 महादेवा
10 कोइल बंश 30 पटेला 50 सांग सुरतान
11 कोठरिया 31 पुरेना 51 सायतोड़
12 कोसरिया 32 ओगर 52 सोनवानी
13 खड़बंघिया 33 बंजारा 53 सोनकेवरा
14 खिलवार 34 बघमार 54 सोनबहरा
15 खंुटी 35 बंधाइया 55 हाड़बंश
16 गहिरवार 36 बरमदेव 56 हिरवानी
17 गुरूपंच 37 बारमतवार 57 जंगरिया
18 गेन्ड्रा 38 बाराभेया 58 सायबंश
19 चन्दनिया 39 बोइरबंश 59 महोदवा
20 चतुर बिदानी 40 भतपहरी 60 नेऊर बंश

सतनामी भांट के पांच गोत्र है:- महादेवा, चैहान, टेंगना, झंवरलाठी, भाट

सतनाम व्रत कथा ...


पुजा सामग्री गुरू गद्दी के लिए:-
कलश, दीपक, रूई, घी, चन्दन, जल, सफेद कपड़ा, दो नग श्वेत ध्वजा, जनेऊ, दो नारियल, गुगल धुप, अगरबत्ती, सुपारी, लौंग, इलायची, पंच मेवा, शक्कर, गुड़, खीर, संत भोग प्रसाद, कलेवा, चैक पुराने के लिए चावल का पिसान (आटा), सात नग बंगला पान, सफेद मिट्टी, दूध एवं मधुरस यह सामग्री एकत्र करके पुजा के पूर्व प्रसाद को तैयार रखें। घर-आंगन को साफ-सफाई करके व्रतधारी को शुद्ध वस्त्र धारण करना चाहिए एवं सतनाम कथा का श्रवण शांतिपूर्व बैठकर करना चाहिए।


गुरू गद्दी:-
परमपूज्य गुरू घासीदास जी मूलतः प्रकृति के पुजारी थे आकार-साकार को लेते ही जगत को परखाया है। मुख्य रूप से पृथ्वी को ही गुरू गद्दी माना गया है।
जगत में जितने प्राणीयों का निवास है वह सब का गददी रूपी स्थाई निवास है और अंत है वही गद्दी के नीचे पर दफन कर सत्य में विलीन हो जाते हैं। जन्म मरण का उत्तम स्थान एक ही है। इसलिए गुरू गद्दी स्थापित करने के लिए आसन बनाकर सफेद वस्त्र से सजाकर नीचे में कलश घी का ज्योत जलाकर लौंग इलाईची बादाम, छोहारा, काजू-किसमिश, बंगला पान में भोग लगाकर सतनाम धर्म के संतगण पूजा अराधना करते हैं। 

जैतखाम स्थापना:-
प्रकृति से उत्पन्न सरई पेंड़ का 25 हाथ लम्बा गोल छोलवाकर तीन हुक लगा के बांस का डंडा कम से कम 5 हाथ लम्बा हो उसके उपर सफेद वस्त्र का झण्डा लगाकर तैयार करें 4 हाथ का गढ्ढा खोदकर नीचे में कुछ धातु जैसे सोना, चांदी, सिक्का, हल्दी इत्यादि डालकर घी से हाथा देवें। नारियल, सुपारी, जनेऊ, चंदन लगा करके, सब संत मीलकर के गड़ाने चाहिए। विधिवत स्थापना करने के उपरांत श्वेत ध्वजा फहराने चाहिये। 

संगठन मजबूती के प्रयास :-


          सतनामी समाज के द्वितीय गुरू राजा गुरू बालकदास जी ने समाज को शक्तिशाली बनाने के लिए सतनाम सेना की स्थापना किया। सेना में शामिल प्रत्येक सेनानी को पोषाक श्वेत रखा गया कमर में पट्टा, सिर पर टोपी और हाथ में भाला दिया गया।
गुरू बालकदास जी के दो अंग रक्षक, सरहा जोधाई दोनों महाबली 24 घंटा गुरू संग में रहते थे उनके एक हाथ में ढाल एक हाथ में तलवार, सीने व भूजा में लोहे का कवच, हाथी, घोडा-पालकी, ठहरने के लिए तम्बू का सामान सहित हजारों की संखय में लाव-लश्कर के साथ सेना एकत्रित किये थे।
गरू बालकदास जी ने सामाजिक न्याय व्यवस्था की सफल संचालन के लिए प्रत्येक गांव में 1 छड़ीदार महंत, 1 भण्डारी, अठगवां के अंतर्गत दौरा महंत, तहसील महंत, जिला महंत, क्षेत्रीय महंत, राज महंत का पद देकर गुरू गद्दी बनाये रखने के लिए इन सभी की व्यवस्था की थी। जिनका पालन समाज में आज तक किया जा रहा है। हालांकि आठगवां समिति वर्तमान में नगण्य है लेकिन समाज में छड़ीदार भण्डारी एवं राज महंत आज भी अपनी सेवा दे रहे हैं।

स्त्रियों में आठ गुण:-
(1) अविवेक  (2) माया  (3) भय  (4) साहस  (5) झूठ  (6) चंचलता (7) अशौच  (8) निर्दयता
स्त्रियों के सोलह सिंगार:-
(1) अंग  (2) मंजन  (3) द्विय वस्त्र  (4) महावर  (5) केश  (6) माघ  (7) पोर    (8) माथा  (9) मेहंदी  (10) उबटन  
(11) अमैषा  (12) सुगंध  (13) मुखराग     (14) दंत  (15) उद्यराग  (16) काजल

मनुष्यों में प्रकृति गुण:-
(1) ज्ञान  (2) वैराग्य (3) योग विज्ञान (4) दया (5) क्षमा  (6) संतोष  (7) श्रद्धा   (8) सत्य (9) विवेक  (10) अहिंसा (11) विचार  (12) साहस  (13) शिलता      (14) संकोच (15) उदारता (16) संयम  (17) त्याग (18) पांडित्य (19) परिश्रमी    (20) अनुशासन (21) ब्रम्हचर्य  (22) विनय  (23) उद्यमी  (24) मृदुलता

मनुष्यों में प्रकृति अवगुण:-
(1) अज्ञानी  (2) निर्दयी (3) हिंसक (4) अविवेक (5) कामी  (6) कुविचार  (7) असत्य  (8) क्रोधी (9) लोभी  (10) लम्पट (11) आलसी  (12) निर्लज  (13) मुख अवज्ञ      (14) ईर्षा (15) द्वेश (16) चुगली  (17) अहंकारी (18) अविश्वासी

महिलाआंे के अलंकारी प्रकृति:-
(1) लज्जा (2) संकोच (3) श्रद्धा (4) शील 
(5) भक्ति   (6) प्रेम (7) ममता   (8) विश्वाास 
(9) परिश्रम   (10) विनिता (11) मृदुलता   (12) प्रसंन्नता 
(13) पवित्रता       (14) उदारता (15) सहंत (16) दृढता  
(17) प्रति प्रणा (18) साहस (19) स्वक्षमता   (20) संयम
(21) नियम (22) दया (23) निर्लोभ   (24) सत्य  
(25) अहिंसा   (26) निस्काम (27) त्याग   (28) तपस्या
(29) संतोष (30) संकल्प

अवगुण प्रकृति का त्याग:-
(1) निर्जला  (2) निसंकोच (3) आलस्य (4) कठोरता (5) अपवित्रता  (6) छल कपट  (7) अनित्य  (8) कंर्षण (9) भोगी  (10) श्रृंगार (11) हास्य  (12) निर्दयी (13) लम्पट (14) चोरी  (15) चुगली (16) असत्य  (17) हठ (18) अज्ञान (19) चंचलता
भोजन पूर्व पंच दोष निवारण करना:-
(1) अशुद्ध बर्तन  (2) अशुद्ध जल (3) अशुद्ध शरीर (4) बिना निमारे चावल व भाजी (5) मुख जुठन नहीं रहे।

मानव शरीर वर्णन:-
इस शरीर में 10 इंद्रिय दरवाजा है 2 आंख  2 कान  2 नाक  1 गुदाद्वार 1 मैथून  1 मुख  1 त्वचा  कुल 10 इंद्रिय है। मन राजा है, तृष्णा रानी है, वासना और कल्पना पाठ के सखा हैं, लोभ मंत्री है, क्रोध सेनापति है, देह सगुन है, नाम अमर है, सुक्ष्म निर्वाण है, माया मन आशा का तृष्णा है, देह नश्वर है। 


सतनामी मान्यताएं :-



वैसे तो यदि सतनामियों के पारंपरिक रीति-रिवाज के विषय में गहनता के साथ लिखा जाये तो वह अपने आप में एक किताब हो सकती है। यहां पर सरसरी तौर पर मोटे-मोटे पारम्परिक रूप से आम सतनामी समाज में जो मान्यताएं हैं उन्हें रेखांकित करने का प्रयास किया है, संभव है इसमें ढेर सारे रीति-प्रथा छुट जायें, किन्तु एक सामान्य तौर तरीका जो देखने सुनने को मिलता है, वह आप सबके समक्ष प्रस्तुत है -
परमपूज्य गुरू घासीदास जी के अंतरध्यान होने के बाद गुरू गद्दी के उत्तराधिकारी पद पर गुरू बालकदास जी के विराजमान होते ही उन्होंने अपने पिता संत शिरोमणी गुरू घासीदास जी के 42 वाणी, 7 उपदेश और 34 अक्षरों के शब्द को साकार करने के लिए प्रयत्न शुरू कर दिया। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले सामाजिक रिति-रिवाजों के लिए एक नियमावली बनाया जो निम्न है:-
नियमावली :-
01. सतनाम धर्म का मूल उद्देश्य है मानव से मानवता का पालन करें।
02. मानव में गुरू वंशजोें को उच्च आदर सम्मान के साथ पूजा करके जगत गुरू के सम्मान में भेंट निछावर देवें। चरण धोकर चरणामृत पावन करें।
03. नाम में सतनाम को ही भजें।
04. सत्य अहिंसा का पालन करें।
05. प्रार्थना पूजा अर्चना, अजर अमर अविनाशी (प्रकृति देव) पांच तत्व का प्रतीक गुरू गद्दी जैतखाम का पूजा करें। अन्य किसी देवता-धामी का पूजा नहीं करना चाहिए।
06. सतनाम धर्म का व्रत पूजा प्रति सोमवार को रहकर शाम को पूजा कर प्रसाद वितरण करके फलाहार करें।
07. सुबह शाम सूर्य का नमन करें, खेतीहार प्रकृति को भजते रहे खेत खलिहान आंगन भवन में सुबह-शाम ज्योत जलाकर मन के मनौती मांग हेतु सतनाम के नाम से जैतखाम के पास झण्डा नीचे संकल्प करके व्रत धारण के साथ अपने जबान से झूठ नहीं बोलना चाहिए जब तक मांग पूरा नहीं हो जाये तब तक सत्य अहिंसा का धारण करना चाहिए।
सात उपदेश:-
01. सत्य अहिंसा को धारण करके सतकर्म करो, परिश्रम और कर्तव्य फल का लाभ उठायें।
02. अंध विश्वास, भ्रम एवं आडम्बर, कर्म में मत फसों।
03. हम एक योनी के है मानव जाति से भेदभाव, छुआछुत मत करो परपंची में मत फंसो।
04. पराई स्त्री को माता मानो व सम्मान करो, अनाचार मत करो।
05. गाय भैंस को हल में मत जोतो, वह भी एक योनी का माता है।
06. किसी भी प्राणी का मांस मत खाओ और जीव हत्या मत करो।
07. षडंत दुर्गन्ध, नशा, चोंगी, शराब, बीड़ी, तम्बाकु, गुडाखु आदि का सेवन मत करो।

छड़ीदार, राजमहंत एवं भण्डारी का कार्य :-
राजा गुरू बालकदास जी ने अपने पिता गुरू घासीदास जी की उपदेशों के तहत पूरे समाज के लिए नियमावली की रचना की जो गावों में छड़ीदार (एक सिपाही) के रूप में सुरक्षित रहेंगे और गुरू गद्दी के स्थान पर बैठने वाले लोगों के बीच से चुनकर गुरू गद्दी स्वीकृती पट्टा लेकर भंडारी पद सुरक्षित रहे और गुरू दक्षिणा को प्रतिवर्ष कंुवार सुदी एकादशी के दिन गुरू गद्दी पर गुरू दक्षिणा जमा करना होगा। जिसका पावती भण्डारी को रखना होगा। और बताना होगा सतनाम धर्म गुरू आदेश नियमावली के साथ क्षेत्र का सुरक्षित रखने के लिए समाज में एकता बनाने के लिए क्षेत्रिय महंत पद नियुक्त किया है सामाजिक रिति-रिवाज को सफल करना व रक्षा करना उनका मूल उद्देश्य है। अगर किसी प्रकार आदेशों का उल्लंघन होता है तो अपने संबंधित राज महंतों के साथ रिपोर्ट पेश करें। गुरू गद्दी तक शिकायत करके निदान कराना राज महंतो का कार्य है। सर्वोच्च पद गुरू वंशज गद्दीनसीन है जो भी निर्णय गुरू देगा वह सर्वमान्य है।

विवाह नियमावली :-
वर कन्या के माता-पिता के मन पसंद एवं कन्या, वर का मन-पसंद आ जाने पर फलदान (सगाई) का कार्यक्रम करना चाहिए दोनों पक्षों के परिवारों के बीच एक सौ एक रूपया सुख के रूप में कन्या के माता-पिता को देना होगा। इसके बाद विवाह को शुभ लग्न में किया जाना चाहिए।
विवाह का लगन मूहर्त के अनुसार बारात लेकर जाना चाहिए। कन्या के लिए भांवर (फेरा) लगन कपड़ा (साड़ी) यथा योग गहना एवं लगन के पूजा सामग्री चावल, 51 बंगला पान के सहित, दहेज में पचहर दाईज कन्या के माता-पिता को देना होता है। और टीकावन के रूप में उपस्थित परिवार तथा गांव-बस्ती निवासी टिकते हैं। छड़ीदार एवं भंडारी के द्वारा एक ढेड़हा-ढेड़हीन के द्वारा विवाह सम्पन्न किया जाता है और भंडारी एवं छड़ीदार को नियमानुसार नगदी राशि से विदा किया जाता है और समाज के बीच में वर पक्ष द्वारा लाये करी लाडू और रोटी-भाजी को देना पड़ता है।
अगर किसी प्रकार लड़की या लड़का विधवा या विधुर हो गये हो तो लड़की-लड़का की इच्छा योग्य एवं परिवार के मन-पसंद से चूड़ी पहनाकर विवाह सम्पन्न करना चाहिये।
सामाजिक न्याय व्यवस्था :-
(क) लाठी लग्गा:- अगर अचानक कोई घटना हो गया है (लाठी लग्गा) है तो किसी को कहीं नहीं जाना चाहिए। अपने गुरू गद्दी, गुरू वंशज के गुरूद्वारा में 1 नारियल व 100 रूपये नगद राशि के साथ गुरू के चरणों में दण्डवत होकर अपनी गलती को अवगत करावें और क्षमा मांगकर आशिर्वाद प्राप्त करें। नारियल का प्रसाद व एक लोटा जल लेकर गुरू के भवन से लेकर अपने गांव तथा सबको बुलाकर भोजन खिलवें व लाये हुए जल को घर भवन में छिड़क्कर अमृत जल ग्रहण करें।
(ख) फूल परी (कुष्ठरोग):- अगर किसी को फूलपरी हो गया बच्चा हो या सियान तो गुरू गद्दी गुरू वंशज का दर्शन करके गुरू को अपना अपराध बताकर दण्डवत होकर क्षमा मांगें और 51 रूपये गुरू दक्षिणा अर्पित करें लोटा में जल भरकर अपने गांव वापस आवे और संत जनों को भोजन खिलावें भंडार में जल को मिला दें।