सतनामियों का एक सर्वमान्य वर्गीकरण कठिन ही नहीं वरन असंभव कार्य है, लेकिन फिर भी क्षेत्रिय मान्यताओं और धारणाओं के आधार पर यह एक प्रयास है।
सतनामी कोई जाति नहीं बल्कि यह वह पंथ है जिस पर कई शताब्दियों पूर्व से ही मानव का एक बहुत बड़ा समुदाय चलते आ रहा है। अर्थात अनेकों वर्षों पहले से ही या गुरू घासीदास जी के अवतार (जन्म) लेने के पूर्व से ही मानव समाज के एक बहुत बड़े समुदाय की आस्था इस धर्म मार्ग से जुड़ा हुआ है। इस धर्म के पालन करने वाले लोग सत्य और अहिंसा का पालन करते आ रहे हैं। सतनाम को मानने वाले लोग जब आपस में मिलते हैं तब ‘‘जय सतनाम’’ अथवा ‘‘साहेब सतनाम’’ कहकर अभिवादन करते हैं। वे प्रत्येक प्राणियों में सत्य के निवास को स्वीकारते हैं और इस कारण ही वे जीवात्मा स्वरूपी सत्यात्मा को परम सत्य मानकर उसका अभिवादन करते हैें। समाज में ऐसी मान्यताएं है कि सतनाम एक महामंत्र है और इस शब्द का उच्चारण अनेकों वर्ष पहले से इस पृथ्वी में उच्चरित होते आ रहा है। इस सतनाम शब्द के उच्चरण करने वाले जाप करने वाले लोगों अथवा समुदाय को सतनामी कहा जाता है।
प्रायः सतनामी सरल स्वभाव के और सादा जीवन व्यतीत करने वाले होते है। ये लोग बाहरी आडम्बरों से मुक्त रहते हैं। सत्य कर्म ही इनकी पूजा होती है। जीव हत्या तथा मूर्ति पूजा नहीं करते। जीवित अर्थात बोलता प्राणि अथवा नारी शक्ति की पूजा की जाती है। माता-पिता, गुरू एवं संत महात्माओं की आरती पूजा की जाती है। गुरू गद्दी एवं जैतखाम ही देव तुल्य माजा जाता है। आज परमपूज्य गुरू घासीदास जी के मूल कर्म क्षेत्र छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि पूरे भारत देश में उनके अनुयायियों की संख्या दिनों दिन बढ़ते ही जा रही है।
सतनामी जाति के उद्भव से लेकर रीति-रिवाज, रहन-सहन, परम्परा तथा वर्ण के विषय में अनेक विद्धानों ने पुस्तकें, ग्रन्थ लिखी है तथा गुरू घासीदास जी के जीवन चरित्र पर शोध ग्रंथ भी लिखे गये हैं। जिसमें सद्ग्रंथ लेखक श्री मनोहरदास नृसिंह, पं.श्री सखाराम बघेल, श्री सुकुलास धृतलहरे, राजमहंत श्री नंकेशरलाल टण्डन, श्री खेमराज मनोहरदास नृसिंह, राजमहंत श्री नम्मुराम मनहर, श्री शंकरलाल टोडर, श्री मंगत रविन्द्र, डाॅ. अनील भतपहरी आदि प्रमुख है। इसके अलावा विदेशी रचनाकारों ने भी अन्वेषण करके अपने विचारों को मूर्तरूप दिया है लेकिन विदेशी लेखकों या मानव शास्त्रीयों ने जो भी लिखा है उसमें उनका एक सा ही दृष्टिकोण परिलक्षित होता है, वह यह कि उनकी सोच मूलतः भारतीय न होकर विदेशी ही है। जैसे कि उदाहरणार्थ- उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका में वहां के मूल जन जातियों को समूल नष्ट करके यूरोपिय लोगों ने देश बनाया। वहां के मूल निवासी रेड इण्डियन्स एवं श्वेत प्रजातियों में धर्म, संस्कृति और प्रजाति का अंतर रहा है। यूरोप में जन जातिय संस्कृतियां हमेशा के लिए लुप्त कर दी गई।
शास्त्र हमें बताता है कि सृष्टि की उत्पत्ति काल से ही यह सनातन समाज है। हमारे यहां गांव में रहने वाले ग्रामवासी, पहाड़ो में रहने वाले गिरीवासी जंगल में रहने वाले वनवासी, नगर में निवास करने वाले नगरवासी कहे जाते हैं।
छत्तीसगढ़ में सतनामियों के बीच भी कई मत व धारणाएं आकार लेने लगी है और आम जन-जीवन में इनकी शाखाएं स्थापित हो चुकी है। जैसे- गायत्री परिवार, ब्रम्हकुमारी, राधास्वामी सतसंग, अंबेडकर वादी, बौद्धिष्ट, मुस्लिम एवं इसाईयत में मतांतरित होना। उल्लेखनिय है कि सभी शाखाएं अपने-अपने प्रचार में सघन रूप से प्रयासरत है इनमें कुछ मे तो सांस्कृतिक रीति-रिवाजों में घोर विरोध है। इस बीच आम सतनामी दिग्भ्रमित होकर बौखला सा गया है, वह किधर जाये ? किसकी बात सूने ?
अतः अब यह आवश्यक हो गया है कि संक्रमण काल में समाज को किसी दिशा में अग्रसर करना है, सतनामी समाज सोंचे।
वैसे भी हर व्यक्ति चाहे वह युवा हो, वृद्ध हो, बालक हो, बालिका हो, स्त्री-पुरूष सभी पर समान रूप से जिस जाति मेे उसने जन्म लिया है, उस जाति का है, समाज में जाति के कारण ही मान-सम्मान, शासन से आरक्षण छूट आदि की पात्रता जाति के ही कारण संभव है। उस जाति के लिए वह स्त्री या पुरूष क्या करता है ? यह उसके स्वयं के कर्म पर आधारित है। उदाहरण ज्वलंत रूप में परमपूज्य गुरू घासीदास जी, राजा गुरू बालकदास जी एवं करूणमयी माता मिनीमाता इसके प्रमाण हैं, इन्होंने समाज को नेतृत्व प्रदान कर अपने जाति को गौरवान्वित किया है। हालांकि लम्बे समय से समाज में एक धारणा बनी है कि हिन्दु समाज व्यवस्था छोटे-बड़े, छूत-अछूत की भावना वाली व्यवस्था है। कुछ लोगों ने अपने को पूज्य बना लिया और दूसरों को व्याज्य बना दिया। यह ऐसी व्यवस्था है जिसमें कुछ लोग जन्म से पूज्य व सम्मानित पैदा होते है और कुछ जन्म से ही व्याज्य व अस्पृश्य होते हैं। हिन्दु समाज के रचनाकार जिन्होंने सभी जीवों में परमात्मा का दर्शन किया, कण-कण में भगवान का साक्षात्कार किया और समस्त मानव जाति को एक कुटुम्ब के रूप में देखा, क्या ऐसी समाज की रचना किये होंगे ? इस स्थिति पर गंभिरतापूर्वक पुनर्विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि वर्तमान स्थिति हमारी स्वाभाविक स्थिति नहीं है। हमें अपने समाज की स्वभाविक व्यवस्था को खोजना पड़ेगा और इसके लिए थो़ड़ा अतीत में जाना होगा।
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