सनातन सतनाम धर्म ऐसा धर्म है जिसके अनुयायी सत्य और अहिंसा का पालन करते हैं। मांस मदिरा का सेवन नहीं करते। सभी प्राणियों में ईश्वर का वास मान कर उसकी पूजा करते है। तन-मन और आचरण की पवित्रता पर जोर देते हैं। पृथ्वी के समस्त प्राणियों के प्रति दया भाव रखते हैं। आईये हम अपने तथा अपने धर्म के विषय में चिंतन करें।
सत्यमेव जयते नानृतं। सत्येन पंथा बितते देवयानम।।
(मुण्डकोपनिषद्)
धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना।।
(श्रीरामचरित्रमानस)
सत्य ही धर्म है और सच्चा धर्म सत्याचरण को माना गया है। सत्य के समान कोई दूसरा धर्म नहीं यह बात भगवान ने केवल अपनी सम्मति से नहीं कही वरन उसे वेद, शास्त्र और पुराणों से समर्पित बताया। रघुकुुल की आदि मर्यादा सत्याचरण की थी। जो बात जैसी हो, जैसे देखें, सुनें वैसे ही माने और कहें, यही सत्य है। इस सत्य का महात्म्य श्रुति तथा पुराणों में पूरी तरह गाया गया है।
जपहु जाई शंकर सतनामा ।हृदय होही तुरंत विश्रामा ।।
(श्रीरामचरित्रमानस)
भगवान राम ने केवल सत्य का प्रतिपादन ही नही किया वरन अपनी वंश परम्परा के अनुकूल आचरण करके उन्होंने अमर कीर्ति प्राप्त की। वे सूर्य कूल के भूषण थे। उनका आचरण उस कुल मर्यादा के अनुकूल था। जिसमें सत्यवादी हरिशचन्द्र उत्पन्न हुए थे। जिन्होंने सत्य के पालन के लिए राज-पाट खोने में संकोच नहीं किया, वरन अपने को एक डोम के हाथों बिकवा कर श्मशान में मुर्दा जलाने वालों तक से कर उगाहने की नीच टहल स्वीकार की। अपनी राज महिषी और पुत्र को साहूकार के हाथों बिकवा दिया। सत्य को कसौटी पर परीक्षण के समय भीषणतम आघात को उन्होंने सहर्ष सहन किया, लेकिन सत्य पथ से विचलित न हुए। सर्प के डशने से मृत्यु को प्राप्त रोहित को उसकी मां रोती-बिलखती श्मशान में जलाने लाती है। हरिशचन्द्र को सत्यता का ज्ञान होता है। पुत्र के लिए फूट-फूट कर वे बिलखते हैं, लेकिन बिना कर लिए उसे भी जलाने नहीं देते। माता जब अपनी आधी साड़ी फाड़ कर देती है तभी पुत्र को जलाने की अनुमति उसे मिलती है।
अपने पिता महाराज दशरथ की सत्य निष्ठा पर आंच न आये, वे पुत्र विषयक मोह में फसकर कहीं सत्याचरण से डिग न जाये इसलिए राम ने राज-पाट त्याग कर वन जाने में क्षणमात्र भी विलंब नहीं किया। उनके सामने अपने महान पूर्वजों का आदर्श था जिसका वे अनुशरण कर रहे थे।
राम और भरत के चैदह वर्ष तक कष्टपूर्ण जीवन बिताने में आपसी आधार सत्य पर टिका रहा और उसी से दोनों का प्रेम एक दूसरे के प्रति निरंतर बढ़ता गया। यह भी भली-भांति विदित है कि महाराज दशरथ ने सत्य कके लिए राम को त्यागा था और उनके प्रति प्रेम निर्वाह के लिए प्राण तक दे दिये। दशरथ के सत्य-पालन के लिए किए गए महान बलिदान को राम निरर्थक सिद्ध होने देना नहीं चाहते थे। इससे आगे का इतिहास बताता है कि प्रभुरमा ने इस प्रतिज्ञा को पूरा करके देवताओं और सज्जनों के प्रति अपने कर्तव्य का पालन किया।
सत्य के उंचे सिद्धांतों का महान पुरूषार्थ द्वारा पालन करना सबके लिए संभव नहीं है। लेकिन दिन-प्रतिदिन के जीवन में सरल, निष्कपट और खरे बनना सत्यता का सर्वग्रहा व्यावहारिक स्वरूप है जो सामान्य जनों के लिए पालनीय है। बड़े सत्यों और प्रतिज्ञाओं के पालन की तूलना में हमारे सामाजिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए इसकी आवश्यकता अधिक है। आज के परिपे्रक्ष्य में देखें तो प्रभुराम ही सच्चे सतनामी की भांति जीवन जीये जिसका अनुकरण किया जाना चाहिए.....
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