Wednesday, 16 March 2016

वर्ण व्यवस्था व छुआछूत भिन्न है:-

एक भ्रम समाज में यह काम कर रहा है कि वर्ण व्यवस्था में छुआछुत के किटाणु विद्यमान है किन्तु ऐसा बिल्कुल नहीं है। मुस्लिम आक्रमणों के पूर्व हिन्दु समाज में वर्ण व्यवस्था तो थी किन्तु छुआछुत नहीं थी। शुद्र व अस्पृश्य एक नहीं अलग-अलग स्थिति है। 

परिस्थितिवश अपवित्रता व जन्मना छुआछुत भिन्न है:-
दूसरा व्यक्तिगत व परिस्थितिवश छुआछुत एवं वर्गगत जन्मना छुआछुत इनमंे भी अंतर समझना आवश्यक है। दोनों को कभी-कभी एक समझ लिया जाता है। इस कारण भी बहुत भ्रम निर्माण होता है।
(क) परिस्थितिवश अपवित्रता:- जैसे प्रसूति अवस्था में माता अस्पृश्य होती है किन्तु यह काल समाप्त होने पर स्थिति सामान्य हो जाती है। जैसे - हृदय रोगियों के कमरे मेे जूते आदि पहन कर नहीं जाने दिया जाता, टी.बी. या अन्य संक्रामक रोगों में शेष लोगों से रोगी को अलग रहने की सलाह दी जाती है। आपरेशन के बाद बिना स्नान आदि किये डाॅक्टर अस्पृश्य जैसे ही रहते हैं। और भी अनेक उदाहरण हो सकते है किन्तु यह अस्पृश्यता अस्थाई होती है और परिस्थितियों पर निर्भर करती है। यह हमारे चिंतन का विषय नहीं है।
(ख) समाजगत जन्मता छुआछुत:- यह वह स्थिति है जिसमें जन्म से ही कुछ लोग अस्पृश्य मान लिए जाते हैं। हमारे चिन्तन का विषय यही वर्गगत जन्मना छुआछुत है। जिसे सतनामियत नहीं मानता है। परम पूज्य गुरू घासीदास जी ने मानव समाज में व्याप्त उच-निच, छुआछुत की भावनाओं का पूरजोर विरोध किया और मनखे-मनखे एक समान का संदेश जन-जन तक पहुचाया। परमपूज्य गुरू घासीदास जी के सत् उपदेशों को मानने वाले सतनामी कहलाए जो आज भी सतनाम धर्म का पालन कर रहे हैं ।
सामाजिक विघटन का षड़यंत्र
आज अपने देश के सामने जो विभिन्न समस्याएं खड़ी है उनमें से एक धर्मान्तरण की है। सतनामी समाज के दुर्बल घटकों को बहला फुसलाकर अपने धर्म में ले जाने का यह सिलसिला प्रारंभ में इस्लाम ने और बाद में ईसाईयों ने इस देश मंे शुरू किया था। यह क्रम आज भी जारी है और ग्रामीण तथा वनांचलों में रहने वाले गरीब, निरक्षर तथा भोले-भाले बंधुओं का धर्मान्तरण कर उन्हें मुस्लिम या ईसाई बनाकर सतनामी समाज को कमजोर करने के प्रयास चल रहे हैं।
भारत देश में आजादी के पश्चात भी धन के प्रयोग से मिशन स्कूलों के माध्यम से या अन्य प्रकार से सतनामी समाज के दुर्बल, जनजाति घटकों का मतांन्तरण करने का उनका कार्य अधिक व्यापक रूप से आज भी चल रहा है। ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाये जा रहे मिशन स्कूल मतान्तरण के सबसे बड़े केन्द्र हैं। हिन्दुओं के धार्माचार्य तथा धर्म के प्रति घृणा का भाव निर्माण करना यह इन स्कूलों का प्रमुख कार्य है। 
भारत में मतान्तरण के लिए ईसाई संगठनों ने स्कूल, कालेज, अस्पताल और अन्य सेवा प्रकल्पों का सहारा लिया और उसमें उनको काफी हद तक सफलता भी मिली लेकिन धीरे-धीरे इनकी उपयोगिता समाप्त हो गयी। इसके बाद भारत में मतान्तरण करने के लिए कुछ अन्य उपयों एवं तरीकों का अवलम्ब करने के लि चर्च के नेताओं ने ईसाइयत तथा चर्च को जीवित रखने और व्यापक करने हेतु एक नया सिद्धांत खोज निकाला और वह था ‘लिबरेशन थियोलाॅजी’ यानी मुक्ति दर्शन। भारत में बहुत बड़ी संख्या में ऐसा एक वर्ग है जो दलित नाम से पहचाना जाता है। ईसाई संस्थाएं तथा चर्च इन दलितों का मतान्तरण कर उन्हें भारत की मूल सामाजिक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक धरोहर से काटने का प्रयास कर रहे हैं। इन दलितों के बीच विभिन्न सेवा कार्य चलाकर उनको धन आदि का प्रलोभन देकर उनका मतान्तरण किया जा रहा है। 
दलित समाज से जो मतान्तरित होकर ईसाई बने हैं ऐसे लोगों की भी चर्च उपेक्षा करता है। चर्च संगठनों के भीतर उनका वही स्थान है जो उनके मतान्तरण के पूर्व हिन्दु समाज में था। ईसाई मिशनरियों ने हिन्दु समाज में जाति प्रथा की आड़ में शोषण और उत्पीड़न का शोर  मचाकर ऐसे दलित हिन्दुओं का मतान्तरण किया। ईसाइयत के बारे में यह दावा किया जाता है कि यह जाति आधारित पंथ नहीं है चर्च की नजर में सभी लोग समान हैं, कोई ऊंच-नीच नहीं परंतु यह भी सत्य है कि चर्च में अनुसूचित जाति के लोगों को दलित ईसाई के नाम से जाना जाता है। तथा उनके साथ सब प्रकार के भेदभाव भी किया जाता है। 
ईसाइयत का मुक्ति दर्शन वास्तव में यह मुक्ति का मार्ग समाज को विखंडित करने का एक षड़यंत्र है। ये बताते है कि भारत एक राष्ट्र नहीं है और ना ही भारतीय समाज एकरस है। यहां 5249 संस्कृतियां है जिनकी हिन्दु संस्कृति की आक्रामकता से रक्षा होना बहुत जरूरी है। इसी षड़यंत्र के चलते पहले सिक्ख, बौद्ध व जैन मत और सतनाम पंथ को हिन्दु धर्म और संस्कृति से अलग कहा गया। सन् 1932 से दलितों की अलग गणना होने लगी और वनवासी अनुसूचित जाति को मूल निवासी करार दिया गया। जो भारत लाखों-करोड़ों वर्षों से एक समुदाय, एक संस्कृति, एक राष्ट्र है एक जनह है वहां उसे 5249 भागों में बांटकर चर्च संगठन हिन्दुत्व बनाम 5249 संस्कृतियों का संघर्ष खड़ा कर रहा है।
भारत में चलाये जा रहे व्यापक धर्म परिवर्तन या मतान्तरण के कार्य का एक ही उद्देश्य है भारत को पुनः विभाजित करना और एक संघ भारतीय समाज को विघटित करके अमेरिका जैसे साम्राज्यवादी देश का गुलाम बनाना ही है। हम इस बात को अच्छी प्रकार से समझे और इस षड़यंत्र को विफल बनाएं। इसी में सतनामी समाज का और समूची मानवता का कल्याण है। 

सतनामियत


सतनामियों का एक सर्वमान्य वर्गीकरण कठिन ही नहीं वरन असंभव कार्य है, लेकिन फिर भी क्षेत्रिय मान्यताओं और धारणाओं के आधार पर यह एक प्रयास है। 
सतनामी कोई जाति नहीं बल्कि यह वह पंथ है जिस पर कई शताब्दियों पूर्व से ही मानव का एक बहुत बड़ा समुदाय चलते आ रहा है। अर्थात अनेकों वर्षों पहले से ही या गुरू घासीदास जी के अवतार (जन्म) लेने के पूर्व से ही मानव समाज के एक बहुत बड़े समुदाय की आस्था इस धर्म मार्ग से जुड़ा हुआ है। इस धर्म के पालन करने वाले लोग सत्य और अहिंसा का पालन करते आ रहे हैं। सतनाम को मानने वाले लोग जब आपस में मिलते हैं तब ‘‘जय सतनाम’’ अथवा ‘‘साहेब सतनाम’’ कहकर अभिवादन करते हैं। वे प्रत्येक प्राणियों में सत्य के निवास को स्वीकारते हैं और इस कारण ही वे जीवात्मा स्वरूपी सत्यात्मा को परम सत्य मानकर उसका अभिवादन करते हैें। समाज में ऐसी मान्यताएं है कि सतनाम एक महामंत्र है और इस शब्द का उच्चारण अनेकों वर्ष पहले से इस पृथ्वी में उच्चरित होते आ रहा है। इस सतनाम शब्द के उच्चरण करने वाले जाप करने वाले लोगों अथवा समुदाय को सतनामी कहा जाता है। 
प्रायः सतनामी सरल स्वभाव के और सादा जीवन व्यतीत करने वाले होते है। ये लोग बाहरी आडम्बरों से मुक्त रहते हैं। सत्य कर्म ही इनकी पूजा होती है। जीव हत्या तथा मूर्ति पूजा नहीं करते। जीवित अर्थात बोलता प्राणि अथवा नारी शक्ति की पूजा की जाती है। माता-पिता, गुरू एवं संत महात्माओं की आरती पूजा की जाती है। गुरू गद्दी एवं जैतखाम ही देव तुल्य माजा जाता है। आज परमपूज्य गुरू घासीदास जी के मूल कर्म क्षेत्र छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि पूरे भारत देश में उनके अनुयायियों की संख्या दिनों दिन बढ़ते ही जा रही है। 
सतनामी जाति के उद्भव से लेकर रीति-रिवाज, रहन-सहन, परम्परा तथा वर्ण के विषय में अनेक विद्धानों ने पुस्तकें, ग्रन्थ लिखी है तथा गुरू घासीदास जी के जीवन चरित्र पर शोध ग्रंथ भी लिखे गये हैं। जिसमें सद्ग्रंथ लेखक श्री मनोहरदास नृसिंह, पं.श्री सखाराम बघेल, श्री सुकुलास धृतलहरे, राजमहंत श्री नंकेशरलाल टण्डन, श्री खेमराज मनोहरदास नृसिंह, राजमहंत श्री नम्मुराम मनहर, श्री शंकरलाल टोडर, श्री मंगत रविन्द्र, डाॅ. अनील भतपहरी आदि प्रमुख है। इसके अलावा विदेशी रचनाकारों ने भी अन्वेषण करके अपने विचारों को मूर्तरूप दिया है लेकिन विदेशी लेखकों या मानव शास्त्रीयों ने जो भी लिखा है उसमें उनका एक सा ही दृष्टिकोण परिलक्षित होता है, वह यह कि उनकी सोच मूलतः भारतीय न होकर विदेशी ही है। जैसे कि उदाहरणार्थ- उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका में वहां के मूल जन जातियों को समूल नष्ट करके यूरोपिय लोगों ने देश बनाया। वहां के मूल निवासी रेड इण्डियन्स एवं श्वेत प्रजातियों में धर्म, संस्कृति और प्रजाति का अंतर रहा है। यूरोप में जन जातिय संस्कृतियां हमेशा के लिए लुप्त कर दी गई।
शास्त्र हमें बताता है कि सृष्टि की उत्पत्ति काल से ही यह सनातन समाज है। हमारे यहां गांव में रहने वाले ग्रामवासी, पहाड़ो में रहने वाले गिरीवासी जंगल में रहने वाले वनवासी, नगर में निवास करने वाले नगरवासी कहे जाते हैं।
छत्तीसगढ़ में सतनामियों के बीच भी कई मत व धारणाएं आकार लेने लगी है और आम जन-जीवन में इनकी शाखाएं स्थापित हो चुकी है। जैसे- गायत्री परिवार, ब्रम्हकुमारी, राधास्वामी सतसंग, अंबेडकर वादी, बौद्धिष्ट, मुस्लिम एवं इसाईयत में मतांतरित होना। उल्लेखनिय है कि सभी शाखाएं अपने-अपने प्रचार में सघन रूप से प्रयासरत है इनमें कुछ मे तो सांस्कृतिक रीति-रिवाजों में घोर विरोध है। इस बीच आम सतनामी दिग्भ्रमित होकर बौखला सा गया है, वह किधर जाये ? किसकी बात सूने ?
अतः अब यह आवश्यक हो गया है कि संक्रमण काल में समाज को किसी दिशा में अग्रसर करना है, सतनामी समाज सोंचे।
वैसे भी हर व्यक्ति चाहे वह युवा हो, वृद्ध हो, बालक हो, बालिका हो, स्त्री-पुरूष सभी पर समान रूप से जिस जाति मेे उसने जन्म लिया है, उस जाति का है, समाज में जाति के कारण ही मान-सम्मान, शासन से आरक्षण छूट आदि की पात्रता जाति के ही कारण संभव है। उस जाति के लिए वह स्त्री या पुरूष क्या करता है ? यह उसके स्वयं के कर्म पर आधारित है। उदाहरण ज्वलंत रूप में परमपूज्य गुरू घासीदास जी, राजा गुरू बालकदास जी एवं करूणमयी माता मिनीमाता इसके प्रमाण हैं, इन्होंने समाज को नेतृत्व प्रदान कर अपने जाति को गौरवान्वित किया है। हालांकि लम्बे समय से समाज में एक धारणा बनी है कि हिन्दु समाज व्यवस्था छोटे-बड़े, छूत-अछूत की भावना वाली व्यवस्था है। कुछ लोगों ने अपने को पूज्य बना लिया और दूसरों को व्याज्य बना दिया। यह ऐसी व्यवस्था है जिसमें कुछ लोग जन्म से पूज्य व सम्मानित पैदा होते है और कुछ जन्म से ही व्याज्य व अस्पृश्य होते हैं। हिन्दु समाज के रचनाकार जिन्होंने सभी जीवों में परमात्मा का दर्शन किया, कण-कण में भगवान का साक्षात्कार किया और समस्त मानव जाति को एक कुटुम्ब के रूप में देखा, क्या ऐसी समाज की रचना किये होंगे ? इस स्थिति पर गंभिरतापूर्वक पुनर्विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि वर्तमान स्थिति हमारी स्वाभाविक स्थिति नहीं है। हमें अपने समाज की स्वभाविक व्यवस्था को खोजना पड़ेगा और इसके लिए थो़ड़ा अतीत में जाना होगा।

सच्चा संत पंथी राम...


सनातन सतनाम धर्म ऐसा धर्म है जिसके अनुयायी सत्य और अहिंसा का पालन करते हैं। मांस मदिरा का सेवन नहीं करते। सभी प्राणियों में ईश्वर का वास मान कर उसकी पूजा करते है। तन-मन और आचरण की पवित्रता पर जोर देते हैं। पृथ्वी के समस्त प्राणियों के प्रति दया भाव रखते हैं। आईये हम अपने तथा अपने धर्म के विषय में चिंतन करें।
सत्यमेव जयते नानृतं। सत्येन पंथा बितते देवयानम।।
(मुण्डकोपनिषद्)
धरमु न दूसर सत्य समाना। आगम निगम पुरान बखाना।।
(श्रीरामचरित्रमानस)
सत्य ही धर्म है और सच्चा धर्म सत्याचरण को माना गया है। सत्य के समान कोई दूसरा धर्म नहीं यह बात भगवान ने केवल अपनी सम्मति से नहीं कही वरन उसे वेद, शास्त्र और पुराणों से समर्पित बताया। रघुकुुल की आदि मर्यादा सत्याचरण की थी। जो बात जैसी हो, जैसे देखें, सुनें वैसे ही माने और कहें, यही सत्य है। इस सत्य का महात्म्य श्रुति तथा पुराणों में पूरी तरह गाया गया है। 
जपहु जाई शंकर सतनामा ।हृदय होही  तुरंत विश्रामा ।।
(श्रीरामचरित्रमानस)
भगवान राम ने केवल सत्य का प्रतिपादन ही नही किया वरन अपनी वंश परम्परा के अनुकूल आचरण करके उन्होंने अमर कीर्ति प्राप्त की। वे सूर्य कूल के भूषण थे। उनका आचरण उस कुल मर्यादा के अनुकूल था। जिसमें सत्यवादी हरिशचन्द्र उत्पन्न हुए थे। जिन्होंने सत्य के पालन के लिए राज-पाट खोने में संकोच नहीं किया, वरन अपने को एक डोम के हाथों बिकवा कर श्मशान में मुर्दा जलाने वालों तक से कर उगाहने की नीच टहल स्वीकार की। अपनी राज महिषी और पुत्र को साहूकार के हाथों बिकवा दिया। सत्य को कसौटी पर परीक्षण के समय भीषणतम आघात को उन्होंने सहर्ष सहन किया, लेकिन सत्य पथ से विचलित न हुए। सर्प के डशने से मृत्यु को प्राप्त रोहित को उसकी मां रोती-बिलखती श्मशान में जलाने लाती है। हरिशचन्द्र को सत्यता का ज्ञान होता है। पुत्र के लिए फूट-फूट कर वे बिलखते हैं, लेकिन बिना कर लिए उसे भी जलाने नहीं देते। माता जब अपनी आधी साड़ी फाड़ कर देती है तभी पुत्र को जलाने की अनुमति उसे मिलती है।
अपने पिता महाराज दशरथ की सत्य निष्ठा पर आंच न आये, वे पुत्र विषयक मोह में फसकर कहीं सत्याचरण से डिग न जाये इसलिए राम ने राज-पाट त्याग कर वन जाने में क्षणमात्र भी विलंब नहीं किया। उनके सामने अपने महान पूर्वजों का आदर्श था जिसका वे अनुशरण कर रहे थे।
राम और भरत के चैदह वर्ष तक कष्टपूर्ण जीवन बिताने में आपसी आधार सत्य पर टिका रहा और उसी से दोनों का प्रेम एक दूसरे के प्रति निरंतर बढ़ता गया। यह भी भली-भांति विदित है कि महाराज दशरथ ने सत्य कके लिए राम को त्यागा था और उनके प्रति प्रेम निर्वाह के लिए प्राण तक दे दिये। दशरथ के सत्य-पालन के लिए किए गए महान बलिदान को राम निरर्थक सिद्ध होने देना नहीं चाहते थे। इससे आगे का इतिहास बताता है कि प्रभुरमा ने इस प्रतिज्ञा को पूरा करके देवताओं और सज्जनों के प्रति अपने कर्तव्य का पालन किया।
सत्य के उंचे सिद्धांतों का महान पुरूषार्थ द्वारा पालन करना सबके लिए संभव नहीं है। लेकिन दिन-प्रतिदिन के जीवन में सरल, निष्कपट और खरे बनना सत्यता का सर्वग्रहा व्यावहारिक स्वरूप है जो सामान्य जनों के लिए पालनीय है। बड़े सत्यों और प्रतिज्ञाओं के पालन की तूलना में हमारे सामाजिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए इसकी आवश्यकता अधिक है। आज के परिपे्रक्ष्य में देखें तो प्रभुराम ही सच्चे सतनामी की भांति जीवन जीये जिसका अनुकरण किया जाना चाहिए.....

ःः सतनाम धर्म:ः

         सच्चा धर्म वही है जिसमें सबका कल्याण हो, जो किसी को किसी भी तरह से छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच न समझे। जिस धर्म में मानव को मानव नही समझा जाता, उसके साथ अपनत्व का व्यवहार नही किया जाता वह धर्म, धर्म नही बल्कि धर्म के नाम पर अपने स्वार्थ पूर्ती के लिये रचा गया साजिस है। सतनाम् धर्म में ऐसा किसी भी प्रकार की खामियाँ नही दिखती जो हमारे मन में प्रश्न पैदा करे। सतनाम् धर्म का संक्षिप्त में मुख्य विशेषतायें निम्न है।
१. सतनाम धर्म प्रत्येक मानव को मानव का स्थान देता है ।
२. सतनाम धर्म में न कोई छोटा और न कोई बड़ा होता है, इसमें सभी को समानता का अधिकार प्राप्त है।
३. जो ब्यक्ति सतनाम् धर्म को ग्रहण कर लेता है, उसके साथ उसी दिन से समानता का ब्यवहार जैसे बेटी देना या बेटी लेना प्रारम्भ हो जाता है ।
४. सतनाम् धर्म किसी भी जाति या धर्म का अवहेलना नही करता ।
५. सतनाम् धर्म हमेशा सच्चाई के पथ पर चलने की शिक्षा देता है ।
६. सतनाम् धर्म का प्रतीक चिन्ह जैतखाम है ।
७. सतनाम् धर्म में ७ अंक को शुभ माना जाता है ।
८. सतनाम् धर्म के मानने वाले दिन सोमवार को शुभ मानते है, इसी दिन परम पूज्य बाबा गुरू घासीदास जी का अवतार हुआ था ।
९. सतनाम् धर्म में गुरू गद्दी, सर्व प्रथम पूज्यनीय है ।
१०. सतनाम् धर्म में निम्न बातों पर विशेष बल दिया जाता है:
सतनाम् पर विश्वास रखना ।
जीव हत्या नही करना ।
मांसाहार नही करना ।
चोरी, जुआ से दुर रहना ।
नशा सेवन नही करना ।
जाति-पाति के प्रपंच में नही पड़ना ।
ब्यभीचार नही करना ।
११. सतनाम् धर्म के मानने वाले एक दुसरे से मिलने पर ‘जय सतनाम‘ कहकर अभिवादन करते हैं।
१२. सतनाम् धर्म में सत्यपुरूष पिता सतनाम् को सृष्टि का रचनाकार मानते हैं।
१३. सतनाम् धर्म निराकार को मानता है, इसमें मूर्ती पूजा करना मना है।
१४. सतनाम् धर्म में प्रत्येक ब्यक्ति ‘स्त्री-पुरूष‘ जिसका विवाह हो गया हो, गुरू मंत्र लेना ‘कान फुकाना‘ अनिवार्य है।
१५. सतनाम् धर्म में पुरूष को कंठी-जनेऊ और महिलाओ को कंठी पहनना अनिवार्य है।
१६. सतनाम् धर्म में मृत ब्यक्ति को दफनाया जाता है।
१७. सतनाम् धर्म में पुरूष वर्ग का दशगात्र दश दिन में और महिला वर्ग का नौवे दिन में किया जाता है ।
१८. सतनाम् धर्म में मृतक शरीर को दफनाने के लिये ले जाने से पहले पुरूष वर्ग को पूर्ण दुल्हा एवं महिला वर्ग को पूर्ण दुल्हन के रूप में श्रंृगार करके ले जाया जाता है।
१९. परिवार के कुल गुरू जिससे कान फुकाया ‘नाम पान‘ लिया रहता है साथ ही मृतक के भांजा को दान पुण्य दिया जाता है ।
२०. माताओ को जब पुत्र या पुत्री की प्राप्ति होती है तो उसे छः दिन में पूर्ण पवित्र माना जाता है।
२१. सतनाम् धर्म में महिलाओ को पुरूष के जैसा ही समानता का अधिकार प्राप्त है।
२२. सतनाम् धर्म में लड़के वाले पहले लड़की देखने जाते हैं।
२३. सतनाम् धर्म में दहेज लेना या दहेज देना पूर्ण रूप से वर्जित है।
२४. लड़के वाले लड़की पक्ष के परिवार वालो को नये वस्त्र देता है साथ ही दुल्हन को     उसके सारे सृंगार का समान दिया जाता है।
२५. सतनाम धर्म में सात फेरे होते हैं जिसमें दुल्हन, दुल्हे के आगे आगे चलती है।
२६. सतनाम् धर्म में शादी होने पर सफेद कपड़ा पहनाकर तेल चढ़ाया जाता है।
२७. दुल्हे का पहनावा ‘जब बारात जाता है‘ सफेद रंग का होता है । पहले मुख्य रूप से सफेद धोती, सफेद बंगाली और सफेद पगड़ी का चलन था परन्तु आज कल लोग अपने इच्छानुसार वस्त्र का चुनाव कर रहे हैं परन्तु एक बात अवश्य होनी चाहिये कि जब फेरा (भांवर) हो तो सतनाम् धर्म के अनुसार सफेद वस्त्र जरुर पहनना चाहिये ताकि धर्म का पालन हो और शादी सतनाम् धर्म के अनुरूप हो।
२८. दुल्हन के साड़ी व ब्लाउज हल्का पिले रंग का होता है।
२९. सतनाम् धर्म में स्वगोत्र के साथ विवाह करना सक्त मना है।
‘नियम और संस्कार को संक्षिप्त में बताया गया है, परन्तु इतने से ही ज्ञानी जन विस्तृत में समझ सकते हैं‘

सतनाम का पुनरूत्थान...


      परम् पूज्य गुरू घासीदास बाबा जी के द्वितीय सुपुत्र राजा गुरू बालकदास जी के सतनाम आंदोलन का असर इतना अधिक हुआ कि अंग्रेजो ने सन् १८२५ में पहली बार शिक्षा का द्वार हिन्दु धर्म में शुद्र कहे जाने वालो के लिये खोले। गुरू बालकदास जी के एकता और समरसता के आंदोलन से अंग्रेज प्रभावित होकर उन्हे राजा घोषित कर हांथी भेंट किये साथ ही अंग रक्षक रखने कि अनुमति भी दिये। शिक्षा के क्षेत्र में हुये इस परिवर्तीत कानून जिसका पुरोधा हमारे गुरू जी रहे हैं। साथीयो धन्य हैं जो हम ऐसे महान गुरू घासीदास जी के सतनाम धर्म अनुयायी है। आज भी अंग्रेजो द्वारा, गुरू बालकदास जी को दिये उपहार स्वरूप अस्त्र-शस्त्र, वस्त्र सब भंडारपुरी धाम में जहाँ राजा गुरू निवास किया करते थे, वहाँ सुरक्षित रखा हुआ है, गुरू वंशज, गुरू बालदास जी के संरक्षण में। जिसे कभी भी जाकर देखा जा सकता है।
यह वही वस्त्र और शस्त्र है, जिसे अंग्रेजो ने सतनामी राजा गुरू बालकदास जी को उपहार में प्रदान किये थे, जिसे गुरू वंशज प्रत्येक वर्ष में एक बार धारण करके संतो के सामने उपस्थित होते हैं ताकि संत समाज को राजा गुरू बालकदास जी द्वारा किये अदम्य और अनुकरणीय कार्य को याद दिलाया जा सके। जिससे समाज में नई जोश और नई चेतना का संचार होते रहे...
समाज में ऐसी भी मान्यताएं है कि नारलौन में सतनामी सुमता, शक्ति और संपति के नाम से विख्यात थे तथा नारलौन से छत्तीसगढ़ आने के समय गुण, ज्ञान, अर्थ और धर्म से परिपूर्ण थे। तथा छत्तीसगढ़ में सतनामी, अन्न-धन्न-संपदा के नाम में मशहुर थे। जिसका जीता जागता उदाहरण है कि अकेले पुरानी मुंगेली तहसील में जो वर्तमान में चार तहसीलो में विभाजित है, मुंगेली, पंडरिया, लोरमी तथा पथरिया (अब मुंगेली जिला बन चुका है) के अंतर्गत २८० मालगुजार तथा २६२ ठेकेदार मालगुजार थे। कुल ५४२ सतनामी मालगुजार का सरकारी रिकार्ड प्रमाणित करता है । (सतनामीयो के स्थिति का आकलन, धार्मिक संस्कृति का आकलन, रिति-रिवाज का आकलन इन क्षेत्रो में निवासरत सतनामीयो के बारे में जाने-समझे बिना कदापि सार्थक नही हो पायेगा) 
मेरा मानना है कि समाज के मेला समिती को गिरौदपुरी धाम में सतनाम धर्म के विपरित जितना भी क्रिया कलाप होता है, उसे रोकने के लिये हर संभव प्रयासरत रहना चाहिये। जैसे-
1. भोजनालयों में सिर्फ शुद्ध शाकाहारी भोजन ही बनाये जाये, इसके लिये उचित दिशा निर्देश बनायें ।
2. जितने भी दुकान लगाये जातें हैं उन्हे कड़ी निर्देश दिया जाय कि, किसी भी तरह के नशीले पदार्थ की बिक्री न करें ।
3. जो श्रद्धालू भुंईया नापते हुये गुरू दरबार तक जाते हैं, उनके लिये अलग से रास्ते बनाये जाने चाहिये, कम से कम तपोभूमि प्रवेशद्वार से लेकर मंदिर प्रांगण तक बेरीगेट लगाकर भुंईया नापने वाले भक्तो के लिये सुरक्षित पथ बनाये जायें ।
4. साफ सफाई का उचित प्रबंध करें ।
5. सतनामी एवम सतनाम धर्म के सभी धार्मिक और सामाजिक मान्यताओ के बारे में सद्-प्रवचन का आयोजन किया जाना चाहिये ।
6. गिरौदपुरी ग्राम में जहाँ गुरूजी का अवतार हुआ है उस पवित्र स्थान को गुरू स्मारक के रूप में समाज को समर्पित करें ।
7. पूर्ण रूप से ब्यवस्थित और बिना किसी परेशानी के मेला का सफल आयोजन हो इसके लिये पुलिस बल की विशेष ब्यवस्था जगह जगह पर किया जाय ।
आशा है मेला को संचालित करने वाले सभी प्रमुख वरिष्ट जन उपर लिखे बिन्दुओ पर विशेष ध्यान देंगे और सतनाम धर्म के साथ गुरूजी के अमर संदेशों को जन जन तक पहुँचायेंगे....!
सतनामी एवम् सतनाम धर्म 
सत से तात्पर्य मुख्य कार्य और नामी से तात्पर्य पहचान। जिस तरह लोहे के कार्य करने वाले को लुहार, कपड़ा धोने के कार्य करने वाले को धोबी, रखवाली करने वाला को रखवाला, गाना गाने वाले को गायक, नृत्य करने वाले को नृतक, नशा करने वाले को नशेड़ी, शराब पिने वाले को शराबी, पोथी पुराण के ज्ञानी को पंडित, राज करने वाले को राजा, सेवा करने वाले को सेवक, तपस्या करने वाले को तपस्वी, ठीक उसी तरह ‘सतकर्म‘ करने वाले को ‘सतनामी‘ कहते हैं।
सतनामी ना ही कोई जाति है और नही कोई धर्म, वह तो सतनाम के मानने वालो की पहचान है जिसे आज सतनामी जाति के नाम से जाना जाता है। सतनामी वह है जिसका कर्म सत्य पर आधारित हो और जो सतनाम धर्म को मानता हो। सतनाम धर्म में छोटा-बड़ा, ऊँच-नीच, छुआ-छुत का कोई स्थान नही है । सतनाम धर्म मानवता वाद पर आधारित है । बाबा गुरू घासीदास जी ने सतनाम धर्म का ब्याख्या इस रूप में किये हैं रू


‘मानव-मानव एक समान‘
मनखे मनखे एक ये, नइये कछु के भेद ।  
जउन धरम ह मनखे ल एक मानीस, उही धरम ह नेक ।।



सतनामी: 
हमारा समाज अंग्रेजों एवं मुगलों के प्रभाव व दबाव के कारन ही कई मत व पंथ में बट गया जिसे कुछ इस प्रकार से समझ सकते है। 

यह निर्गुण निराकार पंथ पर गुरू घासीदास बाबा जी द्वारा बताये सात उपदेशो पर आस्था रखते हैं।
1. दोपहर बाद मवेशियो को हल में नही फांदते।
2. बांझ भैस व गाय से जुताई नही करते।
3. बछिया, पड़वा रहित गाय भैंस का दूध नही पिते।
4. चैका आरती मंगल गीत दशगात्र के समय प्रयोग में लाते हैं।
5. सतनामीयो का झंडा सफेद और चैकोना होता है।
6. जैतखाम, गुरूगद्दी का पूजा करते हैं।
7. भंडारी और साटीदार की मान्यता सतनामी गांवो में अनिवार्य है।
धार्मिक और सामाजिक कार्यो में अगर किसी ब्यक्ति द्वारा अनियमितता पाया जाता है तो ग्राम वासी या फिर गुरू वंश के लोग दंडति करते हैं। हर प्रकार के मांसाहार और धूम्रपान सर्वथा वर्जित है। मृतक भोज, सामाजिक और धार्मिक कार्यो में एक साथ भोजन करना और अंतिम ब्यक्ति के भोजन समाप्त होने पर ही उठना अनिवार्य है ।
रामनामी:
यह निर्गुण निराकार पंथ है जिसे पुज्य श्री परसुराम जी द्वारा स्थापित किया गया माना जाता है इनके अनुयायी अपने षरीर में रामराम गुदवाते (टैटू बनाते) है और प्रभु राम के रूप के स्थान पर उनके नाम पर आस्था रखते हैं और नाम का ही गुणगान करते है। प्रायः 3 प्रकार के रामनामी समाज में मिलते है जिन्हें एकांगी रामराम, मस्तांग रामराम और सर्वांग रामराम कहा जाता है। ये भी जैतखाम का निर्माण करते है लेकिन इनके स्तंभ में रामराम लिखा जाता है। रामनामिओं के वस्त्र में रामराम लिखा जाता है तथा अपने घर में भी ये रामराम लिखाते है। वैसे तो इनकी रहन सहन सतनामियों से भिन्न है लेकिन इनके अधिकांष रिती रिवाज सतनामिओं से मिलते जुलते है फर्क सिर्फ इतना है कि ये अपने षरीर और वस्त्र पर रामराम लिखाते है, जबकी सतनामी राम के नाम से ही चीढने लगते है।
एकांगी रामराम: उन्हे कहा जाता है जिनके षरीर के किसी एक अंग पर रामराम लिखा होता है।  
मस्तांग रामराम: उन्हे कहा जाता है जिनके मस्तक में रामराम लिख होता है।
सर्वांग रामराम: उन्हे कहा जाता है जिनके पूरे षरीर में रामराम लिखा होता है, इन्हे पखषिख रामराम भी कहा जाता है।
आज के समय में कोई अपने षरीर में रामराम नही लिखा रहे है और बहुत से लोग अपने आप को सतनाम से षामील कर लिये है और गुरू घासीदास जी के संदेषों को मानने लगे है।

सूर्यवंशी: 
सूर्यवंशी कहे जाने वाले लोग पहले रोहिदास, बाद में रविदास मंडल और बाद में तथा अब सूर्यवंशी कहलाते हैं। ये शक्ति और त्रिशूल आदि देवी देवताओ की पूजा करते हैं। शाकाहार नही होते और सतनामीयों के गुरू प्रथा को नही मानते तथा इनमें भंडारी, साटीदार नही होते ये मृतक भोज में भोजन एक साथ करने और एक साथ उठने की प्रथा को नही मानते। ये अपने को स्वर्ण हिन्दुओ के सारी रीति-रिवाजो और मूर्ती पूजा करने, और देवताओ को बलि चढ़ाने पर विश्वास करते हैं। जैतखाम, गुरूगद्दी, चैका आदि को नही मानते थे, लेकिन आजकल सूर्यवंशी लोग अपने आपको सतनामी कहलाना पसंद करने लगे है और जैतखाम, पंथी पार्टी आदि को अपनाने लगे हैं ।
देशहा सूर्यवशी और कनौजिया सूर्यवंशी:
इनके रिती-रिवाज और परमंपरा अन्य हिन्दुओ से मेल खाते हैं ये अधिकांशतहः शिव के उपासक हैं और ये पीथमपुर मेला जाते है और वहां इनका मंदिर भी है। इनका रिवाज और सूर्यवंशीयों का रिवाजों में काफी अंतर है, ये लोग जैतखाम को अपने गांव-घरो में नही रखते और ये लोग अपने गंावो में अक्सर रहस बेड़ा बनाते है ।
अब इन तीनो प्रकार के लोगो में निकटता आई है जिसका प्रमुख कारण गिरौदपुरी मेला में इन सभी समुदायों का आगमन होना है पहले सिर्फ और सिर्फ सतनामी लोग ही इस मेला में आते थे लेकिन आज कल ये लोग भी आने लगे हैं और अपने आपको सूर्यवंशी कहलाना छोड़कर सतनामी कहलाना शुरू कर दिये हैं यह सतनामी समाज का बड़प्पन है कि इन लोगो के रिती-रिवाज अलग होने के बाद भी इन लोगो से आपसी मेल-जोल बना रहें हैं।


सतनाम हिन्दू धर्म है यह सामाजिक रिती-रिवाजों और मान्यताओं से समझ मे आता है जैसे-ं
सतनाम धर्म को किसी अन्य धर्म के साखा के रूप में कहीं भी और कभी भी प्रचारित नही किया गया है, बल्कि इसे हिन्दू धर्म की निर्गुण षाखा ही माना गया है।
जैतखाम का स्थापना सामाजिक रूप से उन स्थानो पर कराया जाना चाहिये, जहाँ सामाजिक कार्यक्रम सुगमता पूर्वक संपंन कराया जा सके और स्थापित जैतखाम का नित्य पूजा अर्चना करने का उचित माध्यम सुगमता से उपलब्ध हो साथ ही उचित देख रेख का प्रबंध भी हो किया जाये।
समाज में या किसी भी सामाजिक एवं धार्मिक कार्यक्रम में मांसाहार व नशा सेवन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने के लिये उचित रूप रेखा तैयार करें और दोषियों को सामाजिक दंड देने का उचित नियम बनाया जाये।
जयंती के कार्यक्रम में किसी भी अन्य तरह के नाच गान का आयोजन नही किया जाना चाहिये, सिर्फ और सिर्फ सतनाम धर्म के अनुरूप चैका-पंथी, सत्संग कार्यक्रम का ही आयोजन किया जाय इसका निर्धारण हेतु उचित कदम उठाया जाये।
समाज में उत्कृष्ट कार्य करने वाले सामाजिक संगठन, ब्यक्ति, महिला, प्रतिभावान छात्र-छात्राओ का उचित सम्मान करने के लिये प्रयास करें ताकि अन्यों का भी मनोबल बढ़ें।
समाज के धार्मिक स्थानों में जहाँ मेला का आयोजन होता है, वहाँ कार्यक्रम को सफलता पूर्वक संपंन कराने में सभी अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करें।
समयानुकुल शिक्षा का उचित प्रचार प्रसार करना क्योकि देखने में आता है कि आज शिक्षा को मात्र सरकारी नौकरी के लिये और इतिहास के बारे में जानकारी प्राप्त करने तक ही सीमीत माना जाता रहा है, जबकी शिक्षा रोजगारोन्मुखी और सर्वागीण विकास के लिये है इस बात की ओर ध्यान देना अनिवार्य है।
हमें गर्व है कि हम ऐसे महान कुल में जनम लिये जहाँ गुरू घासीदास बाबा जी के वंशज आज भी विद्यमान हैं। सतनामी समाज ‘गुरू प्रधान‘ समाज है, और रहेगा। हालांकि वर्तमान में अनेक चुनौतियां हमारे सामने है फिर भी समाज में एकरूपता के लिये इसे व्यवहार मे लाने की नितांत आवष्यकता है।
अभिवादन में जय सतनाम कहें।
धर्म के प्रतिक रूप में जैतखाम को स्थान दें।
धर्म ध्वजा के रूप में सफेद चैकोर झंडा ही उपयोग में लाये।
धार्मिक पूजा के लिये चैका-आरती व पंथी को प्राथमीकता दें। 
घर एवं मंदिर में गुरूगद्दी का ही स्थापना करें।
अपने शरीर में धारण करने हेतु कंठी, जनेऊ का ही प्रयोग करें।

सतनामियों का गोत्र वर्णन


1 धृतलहरे 21 चेलक सवाई 41 भुइफोर
2 अजगल्ले 22 जड़कोडि़या 42 भैंसा
3 अरवानी 23 जागड़ा 43 मंडल मरइया
4 आडिल 24 जोलिहा 44 मनघोघर
5 करकल 25 जोगी 45 मनबोहिता
6 कठैइया 26 टड़इया 46 हिरवानी
7 किरही 27 डहरिया 47 जंगरिया
8 बोइर 28 ढीढी 48 सायबंश
9 कुर्रा 29 नौरंग 49 महादेवा
10 कोइल बंश 30 पटेला 50 सांग सुरतान
11 कोठरिया 31 पुरेना 51 सायतोड़
12 कोसरिया 32 ओगर 52 सोनवानी
13 खड़बंघिया 33 बंजारा 53 सोनकेवरा
14 खिलवार 34 बघमार 54 सोनबहरा
15 खंुटी 35 बंधाइया 55 हाड़बंश
16 गहिरवार 36 बरमदेव 56 हिरवानी
17 गुरूपंच 37 बारमतवार 57 जंगरिया
18 गेन्ड्रा 38 बाराभेया 58 सायबंश
19 चन्दनिया 39 बोइरबंश 59 महोदवा
20 चतुर बिदानी 40 भतपहरी 60 नेऊर बंश

सतनामी भांट के पांच गोत्र है:- महादेवा, चैहान, टेंगना, झंवरलाठी, भाट

सतनाम व्रत कथा ...


पुजा सामग्री गुरू गद्दी के लिए:-
कलश, दीपक, रूई, घी, चन्दन, जल, सफेद कपड़ा, दो नग श्वेत ध्वजा, जनेऊ, दो नारियल, गुगल धुप, अगरबत्ती, सुपारी, लौंग, इलायची, पंच मेवा, शक्कर, गुड़, खीर, संत भोग प्रसाद, कलेवा, चैक पुराने के लिए चावल का पिसान (आटा), सात नग बंगला पान, सफेद मिट्टी, दूध एवं मधुरस यह सामग्री एकत्र करके पुजा के पूर्व प्रसाद को तैयार रखें। घर-आंगन को साफ-सफाई करके व्रतधारी को शुद्ध वस्त्र धारण करना चाहिए एवं सतनाम कथा का श्रवण शांतिपूर्व बैठकर करना चाहिए।


गुरू गद्दी:-
परमपूज्य गुरू घासीदास जी मूलतः प्रकृति के पुजारी थे आकार-साकार को लेते ही जगत को परखाया है। मुख्य रूप से पृथ्वी को ही गुरू गद्दी माना गया है।
जगत में जितने प्राणीयों का निवास है वह सब का गददी रूपी स्थाई निवास है और अंत है वही गद्दी के नीचे पर दफन कर सत्य में विलीन हो जाते हैं। जन्म मरण का उत्तम स्थान एक ही है। इसलिए गुरू गद्दी स्थापित करने के लिए आसन बनाकर सफेद वस्त्र से सजाकर नीचे में कलश घी का ज्योत जलाकर लौंग इलाईची बादाम, छोहारा, काजू-किसमिश, बंगला पान में भोग लगाकर सतनाम धर्म के संतगण पूजा अराधना करते हैं। 

जैतखाम स्थापना:-
प्रकृति से उत्पन्न सरई पेंड़ का 25 हाथ लम्बा गोल छोलवाकर तीन हुक लगा के बांस का डंडा कम से कम 5 हाथ लम्बा हो उसके उपर सफेद वस्त्र का झण्डा लगाकर तैयार करें 4 हाथ का गढ्ढा खोदकर नीचे में कुछ धातु जैसे सोना, चांदी, सिक्का, हल्दी इत्यादि डालकर घी से हाथा देवें। नारियल, सुपारी, जनेऊ, चंदन लगा करके, सब संत मीलकर के गड़ाने चाहिए। विधिवत स्थापना करने के उपरांत श्वेत ध्वजा फहराने चाहिये। 

संगठन मजबूती के प्रयास :-


          सतनामी समाज के द्वितीय गुरू राजा गुरू बालकदास जी ने समाज को शक्तिशाली बनाने के लिए सतनाम सेना की स्थापना किया। सेना में शामिल प्रत्येक सेनानी को पोषाक श्वेत रखा गया कमर में पट्टा, सिर पर टोपी और हाथ में भाला दिया गया।
गुरू बालकदास जी के दो अंग रक्षक, सरहा जोधाई दोनों महाबली 24 घंटा गुरू संग में रहते थे उनके एक हाथ में ढाल एक हाथ में तलवार, सीने व भूजा में लोहे का कवच, हाथी, घोडा-पालकी, ठहरने के लिए तम्बू का सामान सहित हजारों की संखय में लाव-लश्कर के साथ सेना एकत्रित किये थे।
गरू बालकदास जी ने सामाजिक न्याय व्यवस्था की सफल संचालन के लिए प्रत्येक गांव में 1 छड़ीदार महंत, 1 भण्डारी, अठगवां के अंतर्गत दौरा महंत, तहसील महंत, जिला महंत, क्षेत्रीय महंत, राज महंत का पद देकर गुरू गद्दी बनाये रखने के लिए इन सभी की व्यवस्था की थी। जिनका पालन समाज में आज तक किया जा रहा है। हालांकि आठगवां समिति वर्तमान में नगण्य है लेकिन समाज में छड़ीदार भण्डारी एवं राज महंत आज भी अपनी सेवा दे रहे हैं।

स्त्रियों में आठ गुण:-
(1) अविवेक  (2) माया  (3) भय  (4) साहस  (5) झूठ  (6) चंचलता (7) अशौच  (8) निर्दयता
स्त्रियों के सोलह सिंगार:-
(1) अंग  (2) मंजन  (3) द्विय वस्त्र  (4) महावर  (5) केश  (6) माघ  (7) पोर    (8) माथा  (9) मेहंदी  (10) उबटन  
(11) अमैषा  (12) सुगंध  (13) मुखराग     (14) दंत  (15) उद्यराग  (16) काजल

मनुष्यों में प्रकृति गुण:-
(1) ज्ञान  (2) वैराग्य (3) योग विज्ञान (4) दया (5) क्षमा  (6) संतोष  (7) श्रद्धा   (8) सत्य (9) विवेक  (10) अहिंसा (11) विचार  (12) साहस  (13) शिलता      (14) संकोच (15) उदारता (16) संयम  (17) त्याग (18) पांडित्य (19) परिश्रमी    (20) अनुशासन (21) ब्रम्हचर्य  (22) विनय  (23) उद्यमी  (24) मृदुलता

मनुष्यों में प्रकृति अवगुण:-
(1) अज्ञानी  (2) निर्दयी (3) हिंसक (4) अविवेक (5) कामी  (6) कुविचार  (7) असत्य  (8) क्रोधी (9) लोभी  (10) लम्पट (11) आलसी  (12) निर्लज  (13) मुख अवज्ञ      (14) ईर्षा (15) द्वेश (16) चुगली  (17) अहंकारी (18) अविश्वासी

महिलाआंे के अलंकारी प्रकृति:-
(1) लज्जा (2) संकोच (3) श्रद्धा (4) शील 
(5) भक्ति   (6) प्रेम (7) ममता   (8) विश्वाास 
(9) परिश्रम   (10) विनिता (11) मृदुलता   (12) प्रसंन्नता 
(13) पवित्रता       (14) उदारता (15) सहंत (16) दृढता  
(17) प्रति प्रणा (18) साहस (19) स्वक्षमता   (20) संयम
(21) नियम (22) दया (23) निर्लोभ   (24) सत्य  
(25) अहिंसा   (26) निस्काम (27) त्याग   (28) तपस्या
(29) संतोष (30) संकल्प

अवगुण प्रकृति का त्याग:-
(1) निर्जला  (2) निसंकोच (3) आलस्य (4) कठोरता (5) अपवित्रता  (6) छल कपट  (7) अनित्य  (8) कंर्षण (9) भोगी  (10) श्रृंगार (11) हास्य  (12) निर्दयी (13) लम्पट (14) चोरी  (15) चुगली (16) असत्य  (17) हठ (18) अज्ञान (19) चंचलता
भोजन पूर्व पंच दोष निवारण करना:-
(1) अशुद्ध बर्तन  (2) अशुद्ध जल (3) अशुद्ध शरीर (4) बिना निमारे चावल व भाजी (5) मुख जुठन नहीं रहे।

मानव शरीर वर्णन:-
इस शरीर में 10 इंद्रिय दरवाजा है 2 आंख  2 कान  2 नाक  1 गुदाद्वार 1 मैथून  1 मुख  1 त्वचा  कुल 10 इंद्रिय है। मन राजा है, तृष्णा रानी है, वासना और कल्पना पाठ के सखा हैं, लोभ मंत्री है, क्रोध सेनापति है, देह सगुन है, नाम अमर है, सुक्ष्म निर्वाण है, माया मन आशा का तृष्णा है, देह नश्वर है। 


सतनामी मान्यताएं :-



वैसे तो यदि सतनामियों के पारंपरिक रीति-रिवाज के विषय में गहनता के साथ लिखा जाये तो वह अपने आप में एक किताब हो सकती है। यहां पर सरसरी तौर पर मोटे-मोटे पारम्परिक रूप से आम सतनामी समाज में जो मान्यताएं हैं उन्हें रेखांकित करने का प्रयास किया है, संभव है इसमें ढेर सारे रीति-प्रथा छुट जायें, किन्तु एक सामान्य तौर तरीका जो देखने सुनने को मिलता है, वह आप सबके समक्ष प्रस्तुत है -
परमपूज्य गुरू घासीदास जी के अंतरध्यान होने के बाद गुरू गद्दी के उत्तराधिकारी पद पर गुरू बालकदास जी के विराजमान होते ही उन्होंने अपने पिता संत शिरोमणी गुरू घासीदास जी के 42 वाणी, 7 उपदेश और 34 अक्षरों के शब्द को साकार करने के लिए प्रयत्न शुरू कर दिया। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले सामाजिक रिति-रिवाजों के लिए एक नियमावली बनाया जो निम्न है:-
नियमावली :-
01. सतनाम धर्म का मूल उद्देश्य है मानव से मानवता का पालन करें।
02. मानव में गुरू वंशजोें को उच्च आदर सम्मान के साथ पूजा करके जगत गुरू के सम्मान में भेंट निछावर देवें। चरण धोकर चरणामृत पावन करें।
03. नाम में सतनाम को ही भजें।
04. सत्य अहिंसा का पालन करें।
05. प्रार्थना पूजा अर्चना, अजर अमर अविनाशी (प्रकृति देव) पांच तत्व का प्रतीक गुरू गद्दी जैतखाम का पूजा करें। अन्य किसी देवता-धामी का पूजा नहीं करना चाहिए।
06. सतनाम धर्म का व्रत पूजा प्रति सोमवार को रहकर शाम को पूजा कर प्रसाद वितरण करके फलाहार करें।
07. सुबह शाम सूर्य का नमन करें, खेतीहार प्रकृति को भजते रहे खेत खलिहान आंगन भवन में सुबह-शाम ज्योत जलाकर मन के मनौती मांग हेतु सतनाम के नाम से जैतखाम के पास झण्डा नीचे संकल्प करके व्रत धारण के साथ अपने जबान से झूठ नहीं बोलना चाहिए जब तक मांग पूरा नहीं हो जाये तब तक सत्य अहिंसा का धारण करना चाहिए।
सात उपदेश:-
01. सत्य अहिंसा को धारण करके सतकर्म करो, परिश्रम और कर्तव्य फल का लाभ उठायें।
02. अंध विश्वास, भ्रम एवं आडम्बर, कर्म में मत फसों।
03. हम एक योनी के है मानव जाति से भेदभाव, छुआछुत मत करो परपंची में मत फंसो।
04. पराई स्त्री को माता मानो व सम्मान करो, अनाचार मत करो।
05. गाय भैंस को हल में मत जोतो, वह भी एक योनी का माता है।
06. किसी भी प्राणी का मांस मत खाओ और जीव हत्या मत करो।
07. षडंत दुर्गन्ध, नशा, चोंगी, शराब, बीड़ी, तम्बाकु, गुडाखु आदि का सेवन मत करो।

छड़ीदार, राजमहंत एवं भण्डारी का कार्य :-
राजा गुरू बालकदास जी ने अपने पिता गुरू घासीदास जी की उपदेशों के तहत पूरे समाज के लिए नियमावली की रचना की जो गावों में छड़ीदार (एक सिपाही) के रूप में सुरक्षित रहेंगे और गुरू गद्दी के स्थान पर बैठने वाले लोगों के बीच से चुनकर गुरू गद्दी स्वीकृती पट्टा लेकर भंडारी पद सुरक्षित रहे और गुरू दक्षिणा को प्रतिवर्ष कंुवार सुदी एकादशी के दिन गुरू गद्दी पर गुरू दक्षिणा जमा करना होगा। जिसका पावती भण्डारी को रखना होगा। और बताना होगा सतनाम धर्म गुरू आदेश नियमावली के साथ क्षेत्र का सुरक्षित रखने के लिए समाज में एकता बनाने के लिए क्षेत्रिय महंत पद नियुक्त किया है सामाजिक रिति-रिवाज को सफल करना व रक्षा करना उनका मूल उद्देश्य है। अगर किसी प्रकार आदेशों का उल्लंघन होता है तो अपने संबंधित राज महंतों के साथ रिपोर्ट पेश करें। गुरू गद्दी तक शिकायत करके निदान कराना राज महंतो का कार्य है। सर्वोच्च पद गुरू वंशज गद्दीनसीन है जो भी निर्णय गुरू देगा वह सर्वमान्य है।

विवाह नियमावली :-
वर कन्या के माता-पिता के मन पसंद एवं कन्या, वर का मन-पसंद आ जाने पर फलदान (सगाई) का कार्यक्रम करना चाहिए दोनों पक्षों के परिवारों के बीच एक सौ एक रूपया सुख के रूप में कन्या के माता-पिता को देना होगा। इसके बाद विवाह को शुभ लग्न में किया जाना चाहिए।
विवाह का लगन मूहर्त के अनुसार बारात लेकर जाना चाहिए। कन्या के लिए भांवर (फेरा) लगन कपड़ा (साड़ी) यथा योग गहना एवं लगन के पूजा सामग्री चावल, 51 बंगला पान के सहित, दहेज में पचहर दाईज कन्या के माता-पिता को देना होता है। और टीकावन के रूप में उपस्थित परिवार तथा गांव-बस्ती निवासी टिकते हैं। छड़ीदार एवं भंडारी के द्वारा एक ढेड़हा-ढेड़हीन के द्वारा विवाह सम्पन्न किया जाता है और भंडारी एवं छड़ीदार को नियमानुसार नगदी राशि से विदा किया जाता है और समाज के बीच में वर पक्ष द्वारा लाये करी लाडू और रोटी-भाजी को देना पड़ता है।
अगर किसी प्रकार लड़की या लड़का विधवा या विधुर हो गये हो तो लड़की-लड़का की इच्छा योग्य एवं परिवार के मन-पसंद से चूड़ी पहनाकर विवाह सम्पन्न करना चाहिये।
सामाजिक न्याय व्यवस्था :-
(क) लाठी लग्गा:- अगर अचानक कोई घटना हो गया है (लाठी लग्गा) है तो किसी को कहीं नहीं जाना चाहिए। अपने गुरू गद्दी, गुरू वंशज के गुरूद्वारा में 1 नारियल व 100 रूपये नगद राशि के साथ गुरू के चरणों में दण्डवत होकर अपनी गलती को अवगत करावें और क्षमा मांगकर आशिर्वाद प्राप्त करें। नारियल का प्रसाद व एक लोटा जल लेकर गुरू के भवन से लेकर अपने गांव तथा सबको बुलाकर भोजन खिलवें व लाये हुए जल को घर भवन में छिड़क्कर अमृत जल ग्रहण करें।
(ख) फूल परी (कुष्ठरोग):- अगर किसी को फूलपरी हो गया बच्चा हो या सियान तो गुरू गद्दी गुरू वंशज का दर्शन करके गुरू को अपना अपराध बताकर दण्डवत होकर क्षमा मांगें और 51 रूपये गुरू दक्षिणा अर्पित करें लोटा में जल भरकर अपने गांव वापस आवे और संत जनों को भोजन खिलावें भंडार में जल को मिला दें।

गुरू घासीदास जी के वंश विस्तार :-


गुरू घासीदास एवं माता सफुरा से तीन पुत्र एवं एक पुत्री हुआ। 

वंश वृक्ष 
1. अमरदास जी बाल्यवस्था में जंगल से वापस नहीं लौटे।
2. बालकदास जी का एक पुत्र साहेबदास हुआ। बालकदास जी की हत्या कर दी गई।
3. आगरदास जी को सन् 1875 में एक पुत्र प्राप्त हुआ उनका नाम अग्रमनदास था।
4. सुभद्रा माता का विवाह हो गया। 
गरू आगरदास जी का विवाह कनुका माता से हुआ था। उसी समय अपने बड़े भाई गुरू बालकदास की (विधवा) पत्नि राधा माता जी को स्वीकार कर लिया। जिनसे सन् 1876 में एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम अजबदास रखा गया।
अजबदास का विवाह गायत्री माता से हुआ इनसे गुरू अतिबलदास बाबा जी का जन्म सन् 1894 ई. में हुआ। राधा माता ने अपने विवाहित पति गुरू बालकदास जी के संयोग से उत्पन्न पुत्र गुरू साहेब दास की विवाहित पत्नि कर्री माता को गुरू अजबदास जी को स्वीकार कराई। जिनके संयोग से गुरू मुक्तावनदास जी का जन्म सन 1898 एवं गुरू जगतारनदास जी का सन् 1901 ई. में जन्म हुआ।
गुरू मुक्तावनदास एवं ललीता माता जी से प्रथम पुत्र अम्रदास जी और अम्रदास एवं मीना के संयोग से गुरू धर्मदास एवं गुरू गोविंद दास।
द्वितीय पुत्र बालदास जी एवं रूकमणी माता के संयोग से गुरू ढालदास (आगे और भी वंशज हैं।
तृतीय पुत्र नवरत्न दास एवं संत माता के संयोग से भी वंश वृद्धि हुए।
गुरू जगतारन दाज जी एवं कृती माता जी के संयांग से 3 पुत्र हुए -
(1) गुरू जगमोहन दास एवं फिरतीन माता के संयोग से सेवनदास, उत्तमदास एवं नेमनदास आगे वंशज और भी है .... 
(2) गुरू मनमोहन दास एवं माता संत कुमारी से देउमनदास व सतखोजन दास जी। 
(3) गुरू दयावंत दास एवं एम.माता के संयोग से पालकदास, द्वारिका दास, देवेन्द्रदास सुपुत्र हुए ।
गुरू अतिबलदास एवं भगवंतीन माता के संयोग से तीन पुत्र हुए -
1) प्रकाशदास पत्नि पुराईन माता निर्वंशी रहे।
2) गुरू अबारनदास पत्नि गुलाब माता से दो पुत्र- प्रथम संतनदास एवं द्वितीय आशकरण दास जी
3) सुखनंदनदास पत्नि सुहागा माता की गोद से मकसुदनदास गुरू एवं अजयदास गुरू उत्पन्न हुए।
गुरू संतनदास जी के पुत्र प्रथम गुरू मुक्ति दास एवं द्वितीय पुत्र शक्तिदास जी
गुरू आशकरण दास जी को तीन संतान हुआ- प्रथम गुरू आसमदास, द्वितीय पुत्र फलदास एवं तृतीय मनहरणदास
गुरू अम्तमनदास एवं कनुका माता जी से गुरू अगमदास जी का जन्म हुआ। अगमदास जी का पूर्णिमा माता के साथ विवाह सन् 1915 मंे हुआ था। 1927 में माता सुमरीत के साथ उनका दुसरा विवाह हुआ। जिसमें मंतरा नामक एक पुत्री का जन्म हुआ था। तीसरा विवाह असम के मीनी माता से सन् 1932 में हुआ था और चैथा विवाह केवटा डबरी के माल गुजार रतिराम की सुपुत्री करूणा माता के साथ हुआ था जिनसे विजय गुरू उर्फ अग्रनामदास बाबा जी का जन्म हुआ। विजय गुरू एवं कौशल माता से गुरू रूद्रकुमार जी का जन्म हुआ आगे वंश जारी है।

सतनाम पंथ उद्भव इतिहास...


ऐतिहासिक प्रणाम के अनुसार मानव सभ्यता का विकास की शुरूआत 5000 ई.पू. से हुई जो कालांतर में 3000 ई.पू. से विकसीत अवस्था में पहुंच चुकी थी जिसे सिंधु घाटी की सभ्यता कहा जाता है। उस समय सुमेरियन सभ्यता एवं हड़प्पा कालिन सभ्यता में विभिन्न संस्कृतियों का प्रचलन था जिसमें सतपंथ संस्कृति का प्रचलन प्रमुख रूप से हुआ। उस काल में सतपंथ के अनुयायीयों के द्वारा सतमार्ग पर चलना, परमार्थ, निःस्वार्थ, सत्य-अहिंसा, सरलता, सहजता, सात्विक जीवन शैली एवं सतनाम का जाप किया जाता था। सतनाम पंथ संस्कृति का प्रचलन मानव सृष्टि की रचना से आज तक विभिन्न कालों से गुजरता हुआ विभिन्न राज्य राजाओं, ऋषियों मुनियांे, तपस्वी, ज्ञानी, त्यागी एवं संत जनांे के माध्यम से चलता आ रहा है एवं अनेक कष्टों को सहते हुए सतमार्ग का अनुसरण करते आ रहे है तथा संपतंथ पर चलते हुए अमरत्व प्राप्त कर रहे हैं।
इसी कड़ी में परम पुज्य गुरू घासीदास जी छत्तीसगढ़ की धरती पर अवतरित ऐसे युग-पुरूष हैं, जिन्होेंने समाज में नई चेतना का उद्भव कर सामाजिक क्रांति लाये। सामाजिक असमानता, आर्थिक शोषण, अत्याचार, छुआछुत, नारी उत्पीड़न आदि के विरूद्ध उन्होंने सन् 1820 से 1830 तक भारी आंदोलन चलाया उनके इस सतनाम आंदोलन में लगभग 4 लाख से अधिक लोग शामिल हो गये तथा सतनाम धर्म का पुर्नस्थापना किया। जो कि औरंगजेब के शासन काल में मृतप्राय हो चुका था। सतनाम धर्म में छत्तीसगढ़ क्षेत्र के दबे-कुचले, पीडि़त मानव समाज बड़ी संख्या में शामिल हुए यहीं आगे चलकर सतनाम धर्म पालन करते हुए आज भी इस धर्म को उजागर किये हुए हैं। इस धर्म के अनुयायियों का विस्तार छत्तीसगढ़ के बाहर नहीं होने का अनेकों कारण नजर आते हैं। जैसे-
01. तत्कालीन इतिहासकार, साहित्यकार, कवि एवं लेखकों ने गुरू घासीदास के इस सतनाम आंदोलन को लेखनीबद्ध नहीं किया अथवा जानबुझकर प्रचार-प्रसार नहीं होने दिया।
02. गुरू घासीदास जी स्वयं स्कूली शिक्षा से वंचित रहे। 
03. तत्कालीन राजा महाराजाओं का दबाव तथा वर्चस्व का कामम होना।
04. गुरू घासीदास जी का नेतृत्व बर्दास्त नहीं करना।
05. गुरू घासीदास जी का आंदोलन तत्कालीन सामाजिक असमानता (कुरितियों) के खिलाफ था, आदि अनेक कारणों से उनका यह आंदोलन सिमित रहा।

संतनामी वंशावली:-
आदि काल ते है सतपंथा । सत के कबहु होय न अंता ।।
                                                                           (नामामण ग्रंथ)
सत्रहवीं शताब्दी में संत पवित्रदास एवं उनके प्रमुख शिष्य एवं उनके अनुयायियों ने मुगल शासक औरंगजेब के पंथ-विरोधी एवं जबरन इस्लाम धर्म अपनाने हेतु गतिविधियों से तंग आकर सन् 1672 ई. में उसके विरूद्ध आंदोलन शुरू कर दिया। जो भारत के इतिहास में ‘‘सतनामी विद्रोह’’ के नाम से जाना जाता है। 
औरंगजेब के दमनकारी नीति से त्रस्त होकर सतनामियों का विशाल समुह उत्तर भारत को छोड़कर बिहार, उड़ीसा, कालाहांडी से होते हुए छत्तीसगढ़ में आकर बस गये।
छत्तीसगढ़ के वनांचल एवं महानदी के आस-पास के क्षेत्रों में सतखोजन दास के वंशज शगुनदास, दयालदास, मेदनीदास भटगांव में निवास कर रहे थे। उस समय छत्तीसगढ़ में सामंति राज व्यवस्था, जमीदारी प्रथा लागु था। बाद में मेदनीदास अपनी पत्नि मायावती एवं पुत्र महंगुदास को लेकर गिरौदपुरी में आकर बस गये। यहीं पर परमपूज्य गुरू घासीदास जी का जन्म हुआ।
मेदनीदास और मायावती भटगांव से आकर गिरौद में बस गये। उनके पुत्र हुए महंगुदास जी उनका विवाह मड़वा गांव में पुराईन गोत्र की युवती अमरौतिन से हुआ महंगुदास एवं अमरौतिन माता के गोद से ननकु नाम का पुत्र हुआ (सन् 1750) में दुसरा पुत्र मनकुदास जी का जन्म सन् 1753 में तथा तिसरे पुत्र गुरू घासीदास जी का जन्म 1756 में हुआ। ननकुदास जी बाल्यकाल में ही सत्य में विलिन हो गये अर्थात मनकु और घासीदास दो पुत्र का वंश विस्तार जग प्रमाणित और सुरक्षित है। मनकुदास जी का विवाह ग्राम दाऊबंधान थाना व तहसील बिलाईगढ़ के कन्या ज्ञानमति के साथ हुआ था। जिसमें 23 जुलाई 1788 में पुत्र बंधनदास का जन्म हुआ।
बंधनदास का विवाह ग्राम नरधा के (पीरती) के साथ हुआ उनके संयोग से छह पुत्र का जन्म हआ जो निम्न हैं -
1. झिंगुटदास जन्म सन् 1808 इनकी पत्नि बोधिन माता।
2. आगरदास का जन्म सन् 1811 इनकी पत्नि आरती माता।
3. अंजोरदास का जन्म सन् 1815 इनकी पत्नि माता सुन्दरमति।
4. खुलाऊदास का जन्म सन् 1818 इनकी पत्नि मिलउतीन माता।
5. धनीदास का जन्म सन 1822 इनकी पत्नि सुखीन माता।
6. बोधनदास का जन्म सन् 1825 इनकी पत्नि बद्रीका माता।
झिंगुटदास के पुत्र सरधा का जन्म 1825 गिरौद में हुआ। उनका वंश विस्तार वर्तमान में सिर्री (पामगढ़) में निवासरत है।
अंजोरदास के 2 पुत्र हुए 1834 में बरखंड़ी (दर्राहा) तथा दुसरा सन् 1836 में कालिदास का जन्म हुआ। वर्तमान में बरखंड़ी का वंश ग्राम सेमरा (नवागढ़) में एवं कालिदास जी का वंश ग्राम भेड़ीकोन्हा, गोईदबंद, सलिहा, खैरझिटी में निवासरत है।
आगरदास के चार पुत्र हुए- 1) गंगाराम जन्म 1830   2) करिया दर्राहा जन्म 1832   3) अंतदास दर्राहा जन्म 1835    4) दर्शनदास छोटे दर्राहा का जन्म सन 1838 में हुआ ये लोग सन् 1845 को गिरौद (दर्रा) छोड़कर ग्राम सिर्री (पामगढ़) और मुड़पार में आकर बस गये।
बोधनदास से एक पुत्र महलदास का जन्म हुआ।
संत खुलाऊदास के एक पुत्र हुए सन 1852 ई. में जिनका नाम घसियादास रखा गया।
वर्तमान में संत पिरोहिलदास जी ग्राम सिर्री, पोस्ट ससहा, व्हाया-पामगढ़ पिन नं. 495553 जिला- जांजगीर-चांपा में निवास करते हैं और सत्संग, धर्म प्रचार-प्रसार एवं गुरूवाणी संत उपदेश आमजनों को देते रहते हैं।

छत्तीसगढ़ में सतनामियों का आगमन...


ऐसा माना जाता है कि सतनामी समाज के पूर्वज सम्राट औरंगजेब के हुकुमत से तंग होकर एवं उसेक आदेशानुसार भारत देश के दक्षिण पथ महाकौशल छत्तीसगढ़ में आकर बस गये। किन्तु यहां के जमीदारी, सांमत शाही शासन, रहन-सहन, खान-पान, बोल-चाल, धर्म-संस्कृति, रिति-रिवाज को देखकर, सतनामी समाज के लोग विभिन्न जिलों में अलग-अलग गांव में बसने लगे और अपने सुविधा के लिए मुहल्ला, पारा, नहाने के लिए तालाब में अलग घाट, मृत्यु संस्कार के लिए अलग शमशान घाट बनाकर रहने लगे। पूजा अराधना के लिए अलग गरूद्वारा बनाकर श्वेत धर्म ध्वजा फहराने लगे। छत्तीसगढ़ के कोने-कोने में जाकर सतनामी लोग स्वतंत्रता पूर्वक बसने लगे और अपने इच्छानुसार कृषि योग्य जमीन बनाकर खेती-किसानी करने लगे।
इसी प्रकार सतनामी समाज के लोग छत्तीसगढ़ के विभिन्न जिला यथा- रायगढ़, सारंगढ़, जांजगीर, कोरबा, बिलासपुर, मुंगेली, बलौदाबाजार, तिल्दा, रायपुर, दुर्ग, कवर्धा, बेमेतरा, राजनांदगांव, बालोद, धमतरी, महासमुन्द, डोंगरगढ़, कांकेर, कोण्डागांव एवं बस्तर में जाकर बस गये एवं स्वतंत्रता पूर्वक रहते हुए काश्तकारी करने लगे। आज इनकी जनसंख्या छत्तीसगढ़ में लगभग 44 लाख से अधिक है।
जनश्रुतियों से पता चलता है कि गुरूघासीदास बाबा जी के ग्यारहवां पीढ़ी पंजाब हरियाणा से आकर छत्तीसगढ़ में बसे उनका पहला पड़ाव जिला बलौदाबाजार के खंड भटगांव में बिंझवार जमीदार के गांव में बस गये। सतनामियों के छत्तीसगढ़ में बसने से पहले यहां मुस्लिम, सिक्ख, बौद्ध, ईसाई एवं जैन धर्म का स्थापना हो चुका था इसके फलस्वरूप यहां पर विभिन्न देवी-देवताओं के मंदिर यथा शिव मंदिर, विष्णु मंदिर, हनुमान मंदिर, दुर्गा मंदिर, काली मंदिर एवं अनेक मठ-मंदिर तथा गुरूद्वारा मौजूद था और इसके साथ ही साथ रूढ़ीवाद एवं अंधविश्वास चरम सीमा पर था।
संवत 1787 सन् 1730 को सतखोजनदास जी के 13वां पीढ़ी, मेदनीदास जी भटगांव छोड़कर गिरौदपुरी में छेरा पुन्नी को आकर बस गये।
गिरौदपुरी में मेदनी दास का स्वर्गवास हुआ उनके पुत्र महंगुदास जी के तिसरे पुत्र के रूप में गुरू घासीदास जी का जन्म हुआ। समाज में मान्यता है कि माता अमरौतिन अपने ननकु-मनकु और घासीदास तीनों पुत्र को जन्म देकर 25 वर्ष की आयु में सतधाम (स्वर्ग) को चली गई। उस समय घासीदास जी तीन माह के शिशु थे। महंगुदास दुःखी हो गया उनके दुःख देखकर गिरौदपुर के लोगों ने सलाह मशविरा कर के गांव के सुधाराम रौतिया (गौटिया) की पुत्री कुमारी करूणा से सादी करवाई। सुधाराम काफी बुढ़े हो गये थे। सुधाराम गौटिया मेदनीदास बाबा के साथ संगत किया करते थे। कुमारी करूणा का ननकु-मनकु एवं घासीदास से बेहद लगाव बढ़ गया था। करूणा के दुलार प्यार से तीनों भाई बढ़ने लगे बाबा मंहगुदास का अकेलापन का दुःख बिसर गया। ऐसा माना जाता है कि ननकुदास जी बालपन में ही सतधाम (स्वर्ग) चले गये। मनकुदास एवं घासीदास दोनों भाईयों का वंश विस्तार आज भी मौजूद है। 

नामायण ग्रंथ की शिक्षा...


      यह सभी जानते हैं कि सत्य की हमेषा विजय होता है और सत्य ही मानव का आभूशण है, असत्य को त्याग कर सत्य को आत्मसात् करने में ही मानव जीवन की सार्थकता है। अज्ञानतावष् मनुवाद के कुटिल विचारों से ग्रसित होने के कारण मानव समाज का एक विषाल समुदाय अनेक वर्शों से आडम्बर युक्त धार्मिक रूढ़ीवाद का षिकार होते आया है। सामाजिक विशमताओं का जहर पीते, थोथा एवं नीरस जीवन जीने को बाध्य रहे। संत गुरूनानक, कबीर तथा रैदास आदि ने मानव समाज में व्याप्त अज्ञानता रूपी गहन अंधकार को मिटाने एवं उन्हें सत्य रूपी प्रकाष में लाकर खड़ा कराने के प्रयास में अपना अमूल्य जीवन समर्पित कर अमरत्व प्राप्त किये, उन्होंने जन-जन के हृदय में सत उपदेषों द्वारा सद्ज्ञान को प्रकाष मय दीप प्रज्वल्लित किये। आपस में प्रेमभाव का संचार कर निःस्वार्थ भावना से प्रेरित भाईचारे की भावनाओं से जीवन जीने के लिये मार्ग प्रषस्त किये। 
संत गुरूओं, महात्माओं के ज्ञान, उपदेषों, सीखों में मानव समाज का कल्याण एवं जीवन का अमरत्व निहित होता है, उनके पद चिन्हों का अनुसरण करने तथा उनके ज्ञान, उपदेषों को आचरण में व्यवहृत करने पर सहज ही सत्य का दर्षन हो जाता है, परम् पूज्य गुरू घासीदास जी ने अपने जीवन को सत्य की षोधन में लगाये रखा। विशम् परिस्थितियों में भी उन्होंने सत्य का मार्ग नहीं छोड़ा अंततः उन्होंने सत्य का दर्षन करने में सफलता प्राप्त किये। उनका कठोर त्याग, कठिन तपस्या, गहन षोध एवं दुर्गम साधना के फलस्वरूप ही मानव समाज में सतनाम धर्म का प्रादुर्भाव हुआ, उन्होंने जन-जन में ज्ञान के प्रकाष को फैलाते हुये सत्य के प्रति उनमें नवीन चेतना जागृत कर मानवता पर आधारित जाति विहीन समाज की स्थापना की जिसमें मानव समाज में समता पर आधारित सद्भाव एवं भाईचारे की भावनाओं का अभ्युदय हुआ। गिरौदपुर, भंडारपुरी, तेलासी, चटुआ और खड़वा धाम में आज भी सत्य का प्रमाण दृश्टव्य है। ये धाम हमें आत्मसात करने की प्रेरणा दे रहे हैं, सच्ची श्रद्धा एवं विष्वास से इन पवित्र धामों का दर्षन मात्र से प्राणियों की मनोकामना सिद्ध हो जाते हैं। 

यह सभी जानते हैं कि सत्य की हमेषा विजय होता है और सत्य ही मानव का आभूशण है, असत्य को त्याग कर सत्य को आत्मसात् करने में ही मानव जीवन की सार्थकता है। अज्ञानतावष् मनुवाद के कुटिल विचारों से ग्रसित होने के कारण मानव समाज का एक विषाल समुदाय अनेक वर्शों से आडम्बर युक्त धार्मिक रूढ़ीवाद का षिकार होते आया है। सामाजिक विशमताओं का जहर पीते, थोथा एवं नीरस जीवन जीने को बाध्य रहे। संत गुरूनानक, कबीर तथा रैदास आदि ने मानव समाज में व्याप्त अज्ञानता रूपी गहन अंधकार को मिटाने एवं उन्हें सत्य रूपी प्रकाष में लाकर खड़ा कराने के प्रयास में अपना अमूल्य जीवन समर्पित कर अमरत्व प्राप्त किये, उन्होंने जन-जन के हृदय में सत उपदेषों द्वारा सद्ज्ञान को प्रकाष मय दीप प्रज्वल्लित किये। आपस में प्रेमभाव का संचार कर निःस्वार्थ भावना से प्रेरित भाईचारे की भावनाओं से जीवन जीने के लिये मार्ग प्रषस्त किये। 
संत गुरूओं, महात्माओं के ज्ञान, उपदेषों, सीखों में मानव समाज का कल्याण एवं जीवन का अमरत्व निहित होता है, उनके पद चिन्हों का अनुसरण करने तथा उनके ज्ञान, उपदेषों को आचरण में व्यवहृत करने पर सहज ही सत्य का दर्षन हो जाता है, परम् पूज्य गुरू घासीदास जी ने अपने जीवन को सत्य की षोधन में लगाये रखा। विशम् परिस्थितियों में भी उन्होंने सत्य का मार्ग नहीं छोड़ा अंततः उन्होंने सत्य का दर्षन करने में सफलता प्राप्त किये। उनका कठोर त्याग, कठिन तपस्या, गहन षोध एवं दुर्गम साधना के फलस्वरूप ही मानव समाज में सतनाम धर्म का प्रादुर्भाव हुआ, उन्होंने जन-जन में ज्ञान के प्रकाष को फैलाते हुये सत्य के प्रति उनमें नवीन चेतना जागृत कर मानवता पर आधारित जाति विहीन समाज की स्थापना की जिसमें मानव समाज में समता पर आधारित सद्भाव एवं भाईचारे की भावनाओं का अभ्युदय हुआ। गिरौदपुर, भंडारपुरी, तेलासी, चटुआ और खड़वा धाम में आज भी सत्य का प्रमाण दृश्टव्य है। ये धाम हमें आत्मसात करने की प्रेरणा दे रहे हैं, सच्ची श्रद्धा एवं विष्वास से इन पवित्र धामों का दर्षन मात्र से प्राणियों की मनोकामना सिद्ध हो जाते हैं। 

गुरू घासीदास सतनाम मंगल आरती...


ओम जय घासीदास हरे, साहेब जै घासीदास हरे।
माया असत यम बंधन छोरत, हँसाहि पार करे।। ओम जय.....
(1) सत सुमिरत सुख होवै, पाप भगे तन का। साहेब..... 
दुख दरिद्रो मिटावै, भरम मिटे मनका।। ओम जय.....
(2) सतगुरू पूर्ण अगोचर, घट घट के बासी। साहेब..... 
काम क्रोध मद हरता, काटे यम फासी।। ओम जय.....
(3) सत्य पुरूश पुरूशोत्तम तुमहि, अगजगके स्वामी। साहेब..... 
भाव भक्ति पहिचानो सबके, तुम अन्तर्यामी।। ओम जय.....
(4) अलख पुरूश निर्वाण अगम गति, महिमा न जानी परे। साहेब .....
साधक संत सुजान भक्तजन, निषि दिन ध्यान धरे।। ओम जय.....
(5) निराकार ओंकार निरक्षर, अक्षर रूप गहे। साहेब.....
जन मन रंजन खल दल गंजन, नाम निरंजन दे।। ओम जय.....
(6) कलिमल अघदलदलन दयानिधी, सतपथ प्रकट करे। साहेब.....
सुक्ष्म वेदाचार्य ग्यानवपु, दलितोद्धार करे।। ओम जय.....
(7) सतखोजी सतलोक निवासी, सत्य संदेष कहे। साहेब.....
सत्य पुरूश के अंष रूप तुम, असत से दूर रहे।। ओम जय.....
ओम जय घासीदास हरे, साहेब जै घासीदास हरे।
माया असत यम बंधन छोरत, हँसाहि पार करे।। ओम जय.....